महात्मा गांधी के राष्ट्रीय आंदोलन के केंद्र में आने का भारतीय लोकमानस के साथ संस्कृति पर भी गहरा प्रभाव देखने को मिला। इस कारण न सिर्फ चरखा से लेकर स्वराज गीतों की एक समृद्ध लोक परंपरा सामने आई बल्कि यह भी दिखा कि किसी भी बड़े परिवर्तन को अपनाने में हमारा लोक संस्कार कहीं पीछे नहीं है।

ऐसे गीतों की परंपरा को फिर से जीवंत और लोकप्रिय बनाने में जुटीं लोकगायिका चंदन तिवारी बताती हैं कि ये गीत आज भी गांव-कस्बों के हजारों लोगों को कंठस्थ हैं। फर्क सिर्फ यह पड़ा है कि लोकगीतों की फूहड़ता को उभार कर लोकगायन का जो बाजारू संस्करण सामने आया है, उसके शोर में इन गीतों की आवाज थोड़ी कमजोर पड़ गई है। चंदन कहती हैंं कि ये लोकगीत हमारे लिए ऐसी सांस्कृतिक विरासत हैं जिससे जुड़कर जीवन और समाज में कई रचनात्मक पहल को हम आज भी आगे बढ़ा सकते हैं।

ऐसी ही मान्यता इस वर्ष पद्मश्री पुरस्कार से नवाजी गईं लोकगायिका डॉ शांति जैन की भी है। जैन बताती हैं कि समय के साथ लोकगीतों के स्वर न सिर्फ बदले हैं बल्कि वे खासे प्रखर और जागरूक भी हुए हैं। खासतौर पर महिलाओं के बीच शिक्षा के प्रसार में ‘खेतवा में दिन भर खुरपिया चलाएम, आके सिलेटिया पर पिलसिन घुमाएम’ सरीखे लोकगीतों ने बड़ी भूमिका निभाई है।

पर्यावरण और स्वच्छता को लेकर भी लोक जागरूकता की ऐसी ही पहल कोहबर के चित्रों से लेकर पारंपरिक विवाह या संस्कार गीतों में भी देखी जा सकती है।