पहले बाढ़ आती थी और दो-चार दिनों में चली जाती थी। अपने पीछे इतना कुछ छोड़ जाती थी कि अगले वर्ष भर का काम चल जाता था। मगर अब सब कुछ बदल-सा गया है। बाढ़ का मतलब अब वार्षिक राहत, बचाव और नुकसान बन गया है। आजादी के बाद से बाढ़ नियंत्रण और बाढ़ के तकनीकी प्रबंधन पर अरबों रुपए खर्च कर देने के बावजूद बाढ़ संभावित इलाकों का दायरा कम होने के बजाय बढ़ा है। आज पूरे बिहार का 73 फीसद हिस्सा बाढ़ प्रभावित क्षेत्र है। पूरे भारत के स्तर पर यह आंकड़ा कुल प्रभावित क्षेत्र का छठवां हिस्सा है। दरअसल, बाढ़ की भयावहता के लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। यह हमारी नदी और उससे जुड़े समूचे पारिस्थितिकी तंत्र को लेकर नासमझी का एक बेहतरीन नमूना है। पूरे बिहार में लगभग छह सौ छोटी-बड़ी जलधाराएं हैं। अकेले चंपारण में लगभग दर्जन भर मुख्य धाराएं नेपाल में हिमालय से निकल कर नीचे मैदानी इलाकों की तरफ आती हैं। बरसात के दिनों में इनकी संख्या और बढ़ जाती है।
नदी की प्रवृत्ति में बाढ़ मूल रूप से शामिल है, खासकर हिमालय से निकलने वाली नदियों की। उसी तरह बाढ़, यहां नदियों के किनारे और जलग्रहण क्षेत्र में बसने वाले लोगों के जीवन का भी अनन्य हिस्सा होती है। बाढ़ का समय लगभग नियत होता है। नदियों की पुरानी धाराओं की एक शृंखला, जिसमें अनगिनत झीलें या ‘मन’ शामिल हैं, मुख्य रूप से तीन काम करते हैं। एक, नदी के बहाव क्षेत्र से अधिक पानी को अपने में समाहित करके नदी के जलस्तर को बढ़ने से रोकती हैं। दो, चूंकि कई झीलों की एक शृंखला है, जो एक-एक करके भरती हुई जाती है, इससे बहाव की गति तेज नहीं हो पाती है और नदियों द्वारा होने वाला कटाव नियंत्रित रहता है। तीन, जब पानी इन नदी की पुरानी धाराओं, जो कि झीलों या ‘मन’ के रूप में फैली हैं, में भर जाता है, जिससे नदी के बहाव से उतना पानी नदी के निचले जल क्षेत्र से कम हो जाता है। इससे बाढ़ की तेजी और विभीषिका में काफी हद तक कमी हो जाती है। बरसात के बाद झीलों में जमा पानी अगले वर्ष भर भूजल और सतही जल का सुगम स्रोत बना रहता है।
बिहार में गंगा और हिमालय के मध्य के पूरे विस्तृत भू-भाग में अनेक नदियां बहती हैं, जो वर्ष के कुछ निश्चित दिनों में बाढ़ का सारा पानी पूरे मैदानी भाग में उड़ेल देती हैं। बाढ़ के पानी में कच्चे ‘शिवालिक’ श्रेणी (हिमालय का सबसे दक्षिणी हिस्सा) की गाद खेती को एक नई जान देती है। ये सारे ताल-तलैया नदियों की क्षमता से ज्यादा पानी समेटते हैं। बाढ़ के पानी के भंडारण की इस प्राकृतिक व्यवस्था को अनुपम मिश्र ‘रेनवाटर हार्वेस्टिंग’ की तर्ज पर ‘फ्लडवाटर हार्वेस्टिंग’ मानते थे। ताल-तलैयों में संग्रहित पानी अगली बाढ़ के आने तक न सिर्फ साफ पानी, बल्कि मछली पालन, सिंचाई, कृषि सहित अनेक संसाधनों का जरिया बना रहता है। वहीं, धीरे-धीरे बाढ़ का पानी मुख्य नदी के रास्ते गंगा में विलीन हो जाता है।
नदियों के इसी जाल में सभ्यता फलती-फूलती आई है, पर नदियों की इस प्राकृतिक व्यवस्था से बिना छेड़छाड़ किए, उनको आत्मसात करते हुए। खेती के तरीके भी बाढ़ और पानी के इसी सामंजस्य पर आधारित रहे हैं। कुल मिलाकर, बाढ़ को विपदा न मानकर उसी के अनुरूप ढल जाने की प्रवृत्ति थी हमारी। मगर पिछले कुछ वर्षों में जल और बाढ़ प्रबंधन के नाम पर पारिस्थितिकी तंत्र की स्थानीय समझ को किनारे करके, तकनीकी ठसक का प्रदर्शन होता रहा है। नदियों के दोनों किनारों पर बड़े-छोटे बांधों की एक शृंखला तैयार हुई, ताकि पानी को फैलने से रोका जा सके। पचास के दशक में जहां बिहार में कुल बांधों की लंबाई 260 किमी थी, अब 3600 किमी तक जा पहुंची है। इतना सब कुछ होने के बावजूद बाढ़ प्रभावित इलाकों का रकबा लगभग चार गुना बढ़कर नब्बे लाख हेक्टेयर तक जा पहुंचा है।
जलजमाव वाले क्षेत्रों में बसाए गए शहर
नदियों और उनसे जुड़ी झीलों और ‘मनों’ के प्राकृतिक स्वरूप और बहाव की दिशा को दरकिनार कर नहरों का जाल बिछाया गया। जलजमाव वाले क्षेत्रों में शहर बसाए गए, जल ग्रहण क्षेत्रों का अविवेकपूर्ण तरीकों से इस्तेमाल किया गया, उन पर बस्तियां बसाई गईं। इसका नतीजा यह हुआ कि अनगिनत झीलों के आपस में जुड़ाव का रास्ता लगभग बंद हो गया। नतीजतन, बाढ़ की भयावहता में और वृद्धि हुई और सारे के सारे निचले हिस्से बाढ़ में जलमग्न होने लगे।
ऐसे कई नाले मुख्य नदियों के इतर जल निकास की एक समांतर व्यवस्था बनाते हैं। यह गंगा के उत्तरी मैदानी इलाकों की एक विशेषता भी है। विकास के क्रम में इन सारे प्राकृतिक बहाव के रास्तों पर नकेल कस दिया गया, अब उन पर शहर और कस्बे बस गए हैं। बिहार के शहर मोतिहारी के उत्तर और पूरब से होकर राष्ट्रीय राजमार्ग गुजरता है, जिसके नीचे से सिकरहना नदी के बाढ़ का पानी मोतीझील में मिल जाता था और वह आगे नदी के प्रवाह तंत्र में मिलकर गंगा की तरफ निकल जाता था। अब राष्ट्रीय राजमार्ग की सारी पुलियों को भरकर और शहर से गुजरने वाले नालों को पाटकर उसके ऊपर कई मोहल्ले बसाए जा चुके हैं। इससे बाढ़ के पानी का निकास न हो पाने से सिकरहना और मोतिहारी के बीच का इलाका जलमग्न होने लगा है, जिसमें शहर के निचले हिस्से भी शामिल हैं।
बाढ़ नियंत्रण उपाय है प्रकृति सम्मत
उत्तर बिहार के लगभग हर शहर की कमोबेश यही स्थिति है। हालांकि यह दौर स्मार्ट सिटी बसाने का है, पर हम तो अभिशप्त हैं प्रबंधन के नाम पर तकनीक के भोंड़े प्रदर्शन को। अब बाढ़ का पानी निकास के अभाव में हफ्तों, महीनों तक नहीं निकल पाता, जिससे खेती का चक्र बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। किसान बाढ़ उतर जाने के बाद खेतों में फैली उपजाऊ मिट्टी का लाभ नहीं ले पाते, क्योंकि पानी निकास के अभाव में वहीं ठहर गया होता है। बाढ़ अब खेतों-खलिहानों, गांवों और शहरों को अपना निशाना बना रही है और छोड़ जा रही है अपने पीछे त्रासदी। हम हैं कि बाढ़ नियंत्रण के नाम पर सब कुछ कर रहे हैं, मगर वह असल बात नहीं समझ रहे और न अमल में ला रहे, जो प्रकृति सम्मत है। भले उसकी कीमत कुछ भी चुकानी पड़े।
अब तो यह सर्वविदित है कि बाढ़ की तबाही पानी से नहीं, बल्कि खोखले प्रबंधन से आती है। कहावत भी है कि नदी अपना रास्ता और प्रवाह क्षेत्र कभी नहीं भूलती, कम से कम अगले सौ वर्षों तक। उस पर आज नहीं तो कल, वह दावा जरूर करती है। इस वर्ष की बाढ़ शायद हमें कुछ सीख दे जाए कि नदी है, तो बाढ़ आएगी ही, उसे बांधने की जरूरत नहीं है। उसे बहाव का रास्ता भर देना है और उसके लिए प्रकृति ने सब इंतजाम पहले से ही कर रखे हैं।