भारत में पंजाब और हरियाणा के किसानों ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। दिल्ली आने की चाहत है और एमएसपी पर कानून बनाने के लिए सरकार पर दबाव बनाया जा रहा है। इस समय ना किसान झुकने को तैयार दिख रहे हैं और ना ही सरकार सभी शर्तें मानती दिख रही है। अब ये विरोध प्रदर्शन कोई नई बात नहीं है, भारत में एक बार नहीं कई मौकों पर किसान सड़क पर उतरे हैं। पिछले दो तीन सालों में पंजाब और हरियाणा के किसानों ने ये जिम्मा उठा रखा है।
समस्या की जगड़ मुनाफा, वही नहीं मिलता
अब किसानों की मांग जो भी हो, उसकी जड़ मुनाफे से जुड़ी है। हर किसान चाहता है कि उसके पास पर्याप्त पैसा हो, इतना तो होना ही चाहिए कि वो खुशहाल जीवन जी सके। लेकिन किसान की ये बुनियादी जरूरतें आजादी के बाद से ही पूरी नहीं हो पाई हैं। हरित क्रांति आ गई, कई फसलों पर एमएसपी मिलने लगी, लेकिन ज्यादातर किसानों की आमदनी में वो उछाल देखने को नहीं मिला जिसकी वे उम्मीद लगाए बैठे रहते थे। अब भारत में खेतीबाड़ी, किसानों की हालत सभी के लिए चिंता का विषय है, लेकिन कुछ दूसरे ऐसे देश भी मौजूद हैं जिन्होंने इन परेशानियों को झेला है और सबसे बड़ी बात- उससे पार पाया है।
अमेरिका और चीन में भी बड़े स्तर पर खेती होती है, वहां भी किसानों की अच्छी खासी संख्या है, लेकिन वहां का अन्नदाता ज्यादा खुश है, वो भारत की तुलना में ज्यादा समृद्ध माना जाता है। अब इसके कई कारण हैं और इसे तभी सरलता से समझा जा सकता है जब दोनों अमेरिका और चीन की फॉर्मिंग का सटीक विश्लेषण किया जाए।
चीन की फॉर्मिंग और किसानों की हालत
चीन में खेतीवाड़ी आज के जमाने में मुनाफे का सौदा है, वहां किसान भारत की तरह सड़क पर सही मूल्यों के लिए लड़ाई नहीं कर रहा है। चीन का किसान तकनीक का भी बेहतर इस्तेमाल कर रहा है, सरकार भी इस सेक्टर में काफी निवेश कर रही है। चीन ने फॉर्मिंग सेक्टर में क्रांति लाने के लिए कई मुश्किल कदम उठाए थे। इसकी शुरुआत आज से 45 साल पहले 1979 में हुई थी। उस साल चीन में एक कॉन्सेप्ट काफी तेजी से वायरल हुआ था। उस कॉन्सेप्ट का नाम था- HRS सिस्टम। HRS का मतलब होता है- हाउसहोल्ड रिस्पांसिबिलिटी सिस्टम।
चीन का सबसे बड़ा क्रांतिकारी कदम
अब इस मॉडल लाने का कारण ये था कि लोगों को खेतीवाड़ी में आने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। सिंपल गणित ये था कि जितने लोग खेती करेंगे, समय के साथ चीन का उतना उत्पादन बढ़ेगा, वो अनाज के मामले में आत्मनिर्भर होता चला जाएगा। अब HRS ने चीन के लिए उस गोल बहुत ही प्रभावशाली अंदाज में पूरा करने का काम किया। असल में इस सिस्टम के तहत खेती करने की जिम्मेदारी हर परिवार की हो गई। चीन को जो भी गांव होते थे, वहां उन्हें एक जमीन पर खेती करने के लिए कहा जाता था। उस गांव का ही उस जमीन पर मालिकाना हक भी हो गया।
मुनाफे में कैसे चीन का किसान?
इसके ऊपर लोगों को अधिकार दिया गया कि वे चुने कि उन्हें कौन सी फसल कितनी उगानी है। ऐसे में सरकार का हस्तक्षेप कम हुआ और किसानों की या कहना चाहिए एक आम नागरिक की स्वतंत्रता बढ़ गई। इसके ऊपर लोगों को खुद से जिम्मेदारी लगने की कि उन्हें अपने खेत में और ज्यादा मेहनत करनी है। वैसे भी मुनाफा क्योंकि उन्हीं लोगों में बंटता था, ऐसे में इस वजह से भी ज्यादा मेहनत की गई। बड़ी बात ये भी रही कि इस सिस्टम की वजह जो फसल उगाई जा रही थी, उसका कुछ हिस्सा ही सरकार के पास जाता था, बाकी वो किसान अपने मन के मुताबिक कहीं भी बेच सकता था। अब वो उस फसल को अपने घर पर इस्तेमाल करे या वो मार्केट में बेचे, उसकी मर्जी रहने वाली है।
अब चीन को इस सिस्टम से बहुत फायदा हुआ। सबसे पहले तो उसकी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में जबरदस्त सुधार देखने को मिला, इसके ऊपर उत्पादन में भी रिकॉर्ड उछाल हुआ। जानकार मानते हैं कि कुछ ही सालों के अंदर में चीन में कृषि और गैर कृषि दोनों तरह की आमदनी में बढ़ोतरी देखने को मिली है। एक आंकड़ा तो ये भी कहता है कि 1978 तक चीन में अनाज, चावल और गेहूं का उत्पादन सिर्फ 24.7 करोड़ टन था, लेकिन HRS आने के बाद वो बढ़कर 2008 तक में ही 47 करोड़ टन हो गया। अब तो वो आंकड़ा और ज्यादा बढ़ चुका है।
चीन का सीक्रेट निवेश और फॉर्मिंग सेक्टर पर असर
चीन के साथ एक खास बात ये भी है कि वो कृषि से जुड़े कई क्षेत्रों में भारी भरकम निवेश करता है, वो ज्ञान को तवज्जो देता है, वो अलग-अलग प्रयोगों को लेकर उत्साह दिखाता है। इसी को लेकर एक आंकड़ा कहता है कि भारत में अभी फॉर्मिंग से जुड़ी रिसर्च और इनोवेशन पर 1.4 बिलियन डॉलर खर्च होता है, वहीं चीन 7.8 बिलियन डॉलर तक निवेश कर रहा है। अब इससे चीन को फायदा ये रहता है कि वो नई तकनीक, नए प्रयोग को लेकर हमेशा तैयार दिखता है और समय से पहले ही उनके आधार पर खुद में बदलाव भी लाता है।
एक और बदलाव चीन को भारत से फॉर्मिंग में इस समय आगे निकाल रहा है। चीन में किसानों को अलग-अलग फसल उगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। ‘जैसी जमीन वैसी फसल’ वाले प्रिंसिपल पर आगे बढ़ा जाता है। इस वजह से वहां पर कम जमीन पर भी ज्यादा फसलों का उत्पादन होता है। वहीं भारत में सरकार कुछ खास फसलों पर ज्यादा ध्यान देती है, उस वजह से उन्हीं का ज्यादा उत्पादन हो पाता है और कई बात तो स्टोरेज भी उतनी नहीं रहती।
पानी की बर्बादी रोकने के लिए चीन के कदम
चीन तो इस बात पर भी ध्यान देता है कि उसकी सिंचाई से पानी की ज्यादा बर्बादी ना हो। उस दिशा में उसने कई रीफॉर्म किए हैं, किस तरह से पानी का खेती में और बेहतर इस्तेमाल हो सके, इस पर जोर दिया गया है। इस वजह से भूजल संकट भी कम हुआ है और कई फसलों का उत्पादन भी बढ़ा है। वहीं भारत में स्थिति इसके उलट है जहां पर वोट की राजनीति को देखते हुए पानी सस्ता किया जाता है, दूसरी सब्सिडी दी जाती हैं और उस वजह से पानी का संकट बढ़ जाता है, उसकी ज्यादा बर्बादी देखने को मिलती है।
चीन को फॉर्मिंग सेक्टर पर अलग-अलग फसल उगाने की वजह से भी जबरदस्त फायदा हो रहा है। पहले चीन में भी चावल और गेहूं पर ज्यादा फोकस किया जाता है, लेकिन बाद में उसने किसानों को स्वतंत्र किया, अलग-अलग फसल उगाने के लिए प्रमोट किया। उस एक बदलाव से चीन में स्थिति काफी सुधरी है, लेकिन भारत अभी भी चावल और गेहूं से आगे नहीं बढ़ पा रहा है। दूसरे फसलें भी उग रही हैं, लेकिन उन पर उतना मुनाफा नहीं जितना चावल और गेहूं पर मिल जाएगा।
अमेरिका की फॉर्मिंग और किसानों की हालत
विकसित देश अमेरिका भी खेती करता है, ये अलग बात है जब भी इस मुल्क के बारे में सोचा जाता है तो सिर्फ बड़ी-बड़ी बिल्डिंग ही याद आती हैं। लेकिन उस विकास के बीच खेती और किसानों की उन्नति के मामले में भी अमेरिका ने असल क्रांति मचाई है। एक सबसे बड़ी सफलता तो ये मानी जा सकती है कि अमेरिका में ज्यादातर किसान पढ़े-लिखे हैं। उन्हें अगर खेती भी करनी है तो उसको लेकर पूरी रिसर्च की जाती है, पूरी जानाकरी ली जाती है और उसके बाद किसान बना जाता है। उस वजह से वहां किसान ज्यादा जागरूक और तकनीकी रूप से मजबूत माना जाता है।
अमेरिका का किसान करता मिट्टी की जांच
अमेरिका में खेती करने का एक फायदा ये भी है कि वहां खेत की मिट्टी की समय-समय पर जांच की जाती है। वहां का किसान ही इतना जागरूक है कि वो खुद कुछ महीनों बाद मिट्टी की जांच करवाता है और फिर उसी हिसाब से फसल उगाता है। बड़ी बात ये है कि उसे मौसम की जानकारी के लिए सेटेलाइट तस्वीरों की भी पूरी मदद मिलती है। वहीं भारत में तो किसानों की कितनी फसल बेमौसम की वजह से बर्बाद हो जाती है।
बिचौलिया के लिए जगह नहीं, सीधी खरीद
अगर दूसरे अंतर की बात करें तो अमेरिका में खेती कैपिटल पर ज्यादा निर्भर करती है, तकनीकी भाषा में उसे पूंजी आधारित कहते हैं। वहीं भारत में तो आज भी श्रमिकों पर ही ज्यादा निर्भरता दिखती है, तकनीकी या टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल भी काफी कम है। ये एक बड़ा कारण है कि ज्यादा मेहनत करने के बाद भी क्यों देश फॉर्मिंग सेक्टर में पिछड़ जाता है। जानकार तो ये भी कहते हैं कि अमेरिका में किसान को उसकी फसल का ज्यादा बेहतर दाम इसलिए मिलता है क्योंकि वहां बिचौलिया सिस्टम नहीं चलता। वहां किसानों का ही बाजार के साथ सीधा संबंध रहता है, इसके अलावा किसान खुद ही फूड प्रोसेसिंग भी कर लेते हैं।
अमेरिका किसानों के पास काफी जमीन
अब क्योंकि अमेरिका ये सारे एक्सपेरिमेंट करता है, उसका किसान कमाता भी ज्यादा है। एक रिपोर्ट बताती है कि अमेरिका का एक किसान औसतन 65 लाख रुपये कमाता है, वहीं भारत में एक किसान सिर्फ 1 लाख 25 हजार कमाता है। जमीन के मामले में भी अमेरिका, भारत से काफी आगे चल रहा है। अमेरिका में किसानों के पास औसतन 444 Hectare जमीन, वहीं भारतीय किसानों के लिए ये आंकड़ा सिर्फ ढाई हैकटेयर है।
अब ये तुलना बताती है कि भारत का किसान किसी देश से पीछे नहीं है, लेकिन तकनीक का आभाव और जागरूकता की कमी ने उसे ज्यादा चुनौतिनयां झेलने पर मजबूर कर दिया है। इन्हीं सब चुनौतियों की वजह से उसे बार-बार सड़क पर विरोध प्रदर्शन करना पड़ता है, सरकार के सामने अपनी आवाज बुलंद करनी पड़ती है।