देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, मगर दुखद पहलू यह है कि प्रतिस्पर्धा के इस दौर में बड़ी संख्या में ईमानदार प्रतिभागी अव्यवस्थाओं से मात खा जाते हैं। बड़ी संख्या में धोखेबाज और फर्जीवाड़ा करने वाले योग्य और सुपात्रों को ठेंगा दिखा कर न केवल आगे निकल जाते, बल्कि बड़े-बड़े पदों तक पहुंच जाते हैं। प्रतिभाओं का हक बड़ी चालाकी और धोखाधड़ी से छीनने वाले बहुतेरे बड़ी साफगोई से सरकारी नौकरियों में भी चयनित हो जाते हैं। ऐसे फरेबियों या फर्जीवाड़ा करने वालों का पहले अक्सर पता ही नहीं चल पाता था। अगर कभी-कभार खुलासा हो भी जाता, तब तक असली दावेदार अपनी आयु सीमा को पार कर चुका होता।
वहीं शिकायतकर्ता को सच्चाई साबित करने में इतनी अड़चनें खड़ी कर दी जातीं कि सच की हार और झूठ की जीत आसान हो जाती। वास्तव में यही बड़ी विडंबना है। इस सच्चाई का दूसरा पहलू यह भी है कि ऐसी तमाम गतिविधियों को प्राय: राजनीतिक संरक्षण के साथ नौकरशाही का भी वरदहस्त प्राप्त होता है।
देश में ऐसी घटनाएं दो तरह से घटती हैं। एक, प्रतियोगी और शैक्षणिक परीक्षाओं में नकल के जरिए। दूसरी, शासकीय सेवाओं में चयन के लिए छूट प्राप्त करने वाले फर्जी प्रमाण-पत्रों के जरिए। ऐसे फर्जी प्रमाण-पत्र चाहे जाति के हों, आय संबंधी या फिर दिव्यांगता के, बड़ी ही आसानी से हासिल कर, अंकों में अप्रत्याशित वृद्धि करा कर, असली दावेदारों का हक इतनी चतुराई से छीना जाता है कि सामने वाले को पता ही नहीं चलता। नकल के जरिए प्राप्त अच्छे अंक या धोखाधड़ी कर फर्जी के जरिए छूट पाने वालों की योग्यता पर सवाल उठाते कई वीडियो वायरल हो चुके हैं। मगर इन नक्कालों को ऐसी सजा कम ही मिली है, जिससे दूसरे डरें।
यह भी सही है कि जब तक सारी प्रक्रिया हस्तलिखित यानी ‘मैनुअल’ थी और प्रमाण-पत्रों के पुलिंदे थोक के भाव सरकारी कार्यालयों में बस्ताबंद लाल कपड़ों में लिपटे रहते थे, तब ऐसे फर्जीवाड़ों की जांच भी बड़ी चुनौती थी। इसका भरपूर फायदा ऐसे न जाने कितने अपराधियों ने उठाया होगा, जिसका न कोई हिसाब-किताब है और न ही कभी खुलासा हो पाया। मगर आज जब डिजिटल क्रांति का दौर है, उसमें भी अगर यह सब न रुके तो बात चिंता और दुख की जरूर है।
हालांकि सूचना का अधिकार अधिनियम प्रभावी होने के बाद देश भर में ऐसे अनेक खुलासे हुए हैं, जिनसे फर्जीवाड़े में लिप्त अपराधी बेनकाब हुए हैं। मगर उससे भी बड़ी सच्चाई यह है कि बहुतेरी जानकारियां जुटाने के बाद, आवेदन या तो वापस ले लिए जाते हैं या फिर इन पर कार्रवाई नहीं हो पाती। कारण साफ हैं। सौदेबाजी या फिर दबंगई से मामले को रफा-दफा कराना या प्राणघातक धमकियां। ऐसे शिकायतकर्ताओं को न तो पुलिस और न ही प्रशासन की मदद मिल पाती है।
देश में ऐसे कई चर्चित फर्जीवाड़े हैं। कई प्रकरण बेहद सुर्खियों में भी रहे। मध्यप्रदेश के व्यावसायिक परीक्षा मंडल (व्यापम) घोटाले को तो भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा परीक्षा घोटाला कहते हैं। इसमें असली की जगह नकली परीक्षार्थी को बैठाना, नकल कराना और दूसरी कई तरह की धांधलियों में सैकड़ों लोगों को हथकड़ियां लगीं। उससे भी बड़ा हैरान करने और चौंकाने वाला सच यह कि 2013 में प्रकरण सार्वजनिक होने के पहले ही मामले से जुड़े कई संदिग्धों की लगातार मौतें होने लगीं जो सड़क दुर्घटनाओं, आत्महत्याओं, हृदयाघात के रूप में सामने आने लगीं। बाद में लोगों को समझ आया कि ये सहज या दुर्घटनावश हुई मौतें नहीं हैं।
इस घोटाले के तार कई राज्यों से जुड़े होने के कारण सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर जांच केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो यानी सीबीआई को सौंपी गई। 2013 में व्यापम द्वारा आयोजित अलग-अलग सत्ताईस परीक्षाओं में लगभग बीस लाख आवेदक शामिल हुए थे। इस घोटाले को अत्याधुनिक तकनीक के जरिए अंजाम दिया गया और ‘सिस्टम एनालिस्ट’ तक शामिल हुए। ऐसे ही मामले मध्यप्रदेश में फिर आए। ग्वालियर में 184 शिक्षकों के दिव्यांग प्रमाण-पत्रों में से जांच में 66 फर्जी निकले। मुरैना में ऐसी धोखाधड़ी पर सात शिक्षकों को बर्खास्त कर दिया गया। शहडोल में भी विकलांगता के नाम पर कई शिक्षक निशाने पर हैं।
फर्जी के अलावा नकल माफिया ने भी देश में बहुत बड़ा संजाल बना रखा है। नकल को लेकर कुछ प्रांत भले बदनाम हैं, लेकिन सच्चाई यही है कि हर कहीं दूर-दराज के क्षेत्रों में बड़े-बड़े अड्डे बने हैं। शिक्षा माफिया और निजी स्कूलों का गठजोड़ इसकी जड़ होते हैं। हर साल हजारों छात्रों को फांसकर उनका भविष्य बर्बाद करते हैं। ऐसे खेल में बिना मान्यता वाले स्कूल, मान्यता प्राप्त स्कूलों के एजंट का काम करते हैं, जो बिना पढ़े हाईस्कूल और हायर सेकेंडरी पास करने वालों को दाना डालते हैं। इन्हें बिना मान्यता वाले स्कूलों में नियमित छात्र बनाकर, मान्यता वाले स्कूलों से पंजीयन करा कर, बोर्ड परीक्षाओं फार्म भरवाते हैं।
निश्चित रूप से शिक्षा विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों की संलिप्तता के बिना यह संभव ही नहीं। यह भी सच है कि दूर-दराज के परीक्षा केंद्रों में निजी परीक्षार्थियों की जबरदस्त भीड़ रहती है, लेकिन क्यों? इस पर प्रशासन या परीक्षा विभाग मौन साधे रहता है। सामूहिक नकल करते या कराते न जाने कितने वीडियो सामने आए होंगे, जिन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। निश्चित रूप से यही नकलची सफलता के प्रमाण-पत्र लेकर सरकारी नौकरियों में घुस जाते हैं, जिनकी दक्षता पर भी जब-तब बड़ा सवाल उठता है।
सवाल है कि क्या नकल और धोखाधड़ी नहीं रुक सकती? अनेक प्रतियोगी परीक्षाओं में धांधलियां कब थमेंगी? वास्तव में विकसित हो रहे भारत के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती है। ऐसा भी नहीं कि राज्य सरकारों ने इन्हें रोकने के प्रयास न किए हों। उत्तराखंड इसका सबसे अच्छा उदाहरण है, जहां नकल विरोधी कानून लागू होने के बाद ऐसा करने और पेपर लीक करने-कराने वालों पर शामत आ गई है। उत्तराखंड प्रतियोगी परीक्षाओं में अनुचित साधनों की रोकथाम, उपाय और कानून 2023 में नकल माफिया पर लगाम कसने के लिए दस करोड़ रुपए के जुर्माने के प्रावधान के साथ-साथ आजीवन कारावास या दस साल की जेल का भी प्रावधान है।
कोई प्रिटिंग प्रेस, कोचिंग संस्थान या प्रबंधन संलिप्त मिलेगा, तो उसकी संपत्ति कुर्क होगी। इसमें यह भी प्रावधान है कि जो भी भर्ती परीक्षाओं में पेपर लीक कर या नकल से उत्तीर्ण होता है, उस पर दस वर्ष के प्रतिबंध के साथ ‘गैंगस्टर एक्ट’ भी लग सकेगा। उत्तराखंड में नकल का अपराध संज्ञेय, गैर-जमानती और अशमनीय हो गया है।
नकल हो या फर्जी प्रमाण-पत्र, ये ऐसे बड़े घोटाले हैं, जो असली प्रतिभाओं के हतोत्साह और पलायन का कारण बन रहे हैं। मगर सबसे दुखद और विचारणीय पहलू यह है कि सब जानते हुए भी इन्हें रोकने की कोई ठोस और प्रभावी पहल राष्ट्रीय स्तर पर नहीं दिखती। लगता नहीं कि पूरे देश में परीक्षाओं में नकल कराने, फर्जी परीक्षार्थी बिठाने, कंप्यूटर से खेल कराने, पुस्तिका बदलने या फिर पर्चा बाहर कराने वालों को कठोर दंड देने का प्रयास हो रहा है। काश, उत्तराखंड सरीखे परीक्षाओं में अनुचित साधनों की रोकथाम जैसा सख्त कानून पूरे देश में प्रभावी हो, ताकि ईमानदार प्रतिभाओं के साथ सच्चा न्याय हो सके। साथ ही यह भी कि सभी शासकीय सेवकों के दस्तावेजों की हर राज्य नए सिरे से डिजिटल सत्यापन कराए, ताकि बचे-खुचे दागदार भी बेनकाब हो सकें।
