कपड़ा उत्पादन के हर चरण में पानी, रसायनों और ऊर्जा का बेतहाशा इस्तेमाल होता है। इसका गहरा असर पर्यावरण पर पड़ता है। शोध के मुताबिक फैशन उद्योग का वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में दस फीसद हिस्सा है, जिसके 2030 तक लगातार बढ़ने की संभावना है। फैशन उद्योग हर साल 9.2 करोड़ टन से ज्यादा कचरा पैदा करता और 1.5 खरब टन पानी की खपत करता है।
बदलती जीवन-शैली और सोच ने पर्यावरण समेत कई स्तरों पर असर डाला है। इससे ऐसी कई तरह की समस्याएं पैदा हुई हैं, जिनको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, लेकिन बदलते फैशन की मांग ने उन तमाम समस्याओं को नजरअंदाज कर दिया है, जिनमें पर्यावरण की समस्या भी शामिल है। एक शोध के मुताबिक जलवायु परिवर्तन में फैशन उद्योग का दस प्रतिशत हिस्सा है। इससे भूजल को सबसे बड़ा खतरा है।
दरअसल, कपड़ा बनाने वाली कंपनियां सबसे ज्यादा भूजल का दोहन करती हैं। मसलन, बंग्लादेश दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कपड़ा निर्यातक देश है। आंकड़ों के मुताबिक बांग्लादेश के कपड़ा उद्योग धरती से सालाना 1,500 अरब लीटर पानी का दोहन करते हैं। गौरतलब है एक किलो डेनिम को धोने में 250 लीटर पानी बर्बाद होता है।
इसी तरह एक किलो सूती कपड़े को धोने और रंगने में 200 लीटर पानी की खपत होती है। यही वजह है कि बांग्लादेश में भूजल स्तर लगातार नीचे जा रहा है। जितना पानी बांग्लादेश में कपड़ा उद्योग में बर्बाद होता है, अगर उसे पीने के लिए इस्तेमाल किया जाए तो करीब दो करोड़ लोगों को दस महीने तक पीने का पानी मिल सकता है।
फैशन की वजह से पर्यावरण प्रदूषण, जल संकट, रासायनिक प्रदूषण, कार्बन उत्सर्जन और कचरे की समस्या बढ़ रही है। गौरतलब है कि कपड़ा उद्योग दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों में से एक है। फैशन और टिकाऊ कपड़ों में शुमार नायलान, पालिएस्टर और स्पैंडिक्स जैसे सिंथेटिक फाइबर, जो कपड़ों के उत्पादन में इस्तेमाल किए जाते हैं, सदियों तक गलते-सड़ते नहीं हैं।
ये पर्यावरण सुधार की दिशा में गंभीर चुनौती बन गए हैं। इसी तरह रेयान, लकड़ी के गूदे से बना कपड़ा होता है, जो वनों की कटाई को बढ़ाता और प्राकृतिक आवासों के विनाश और जैव विविधता के लिए बेहद नुकसानदेह है। आजकल बाजार में ऐसे भी सस्ते कपड़े बहुतायत में मिलने लगे हैं जो कम गुणवत्ता वाले होते हैं और लोग उन्हें जल्द ही त्याग देते हैं।
ऐसे कपड़ों से वैश्विक अपशिष्ट की समस्या बढ़ी है, हालांकि फैशन के पारिस्थितिकी पर असर के बारे में जागरूकता पहले से बढ़ी है, जिससे टिकाऊ कपड़ों के उत्पादन में बढ़ोतरी हुई है। ऐसे कपड़ों की मांग बढ़ने पर ऐसे उद्योगों में लगे मजदूरों के लिए बेहतर कामकाजी स्थितियां, कपड़ों की बेहतर गुणवत्ता और बेहतर शिल्प कौशल में लगे शिल्पकारों को बेहतर काम और वेतन मिलेगा।
गौरतलब है कि भारतीय कपड़ा उद्योग अपने कुशल कारीगरों के लिए जाना जाता है, जिसमें कढ़ाई और अलंकरण शामिल हैं। मगर पर्यावरण के लिए समस्या पैदा करने वाले उद्योगों को कैसे पर्यावरण के अनुकूल बनाया जाए, यह सोचने की बात है। भारत में जो वस्त्र ब्रांड चल निकला, वह इस कदर बाजार में छा जाता है कि खरीदते वक्त उसके बारे में कोई सोच-विचार नहीं करता कि इससे पर्यावरण को कहीं नुकसान तो नहीं पहुंच रहा है।
अगर इसकी जगह लोगों में टिकाऊ कपड़ों वाले पर्यावरण के अनुकूल ब्रांडों के प्रति दिलचस्पी बढ़े तो कपड़ा उद्योग से होने वाली समस्याओं को कम किया जा सकेगा। फैशन समाज की एक जरूरत है, लेकिन इससे जब समस्या पैदा हो रही हो, तो उसे जायज नहीं ठहराया जा सकता।
फैशन उद्योग या कहें, कपड़ा उद्योग पर ब्रिटेन, अमेरिका, स्वीडन और फिनलैंड में हुए ताजा अध्ययन से पता चला है कि फैशन पर्यावरण सहित उन तमाम क्षेत्रों पर असर डालता है, जिनसे धरती और धरती पर रहने वाले जीव-जंतुओं का गहरा रिश्ता जुड़ा है। अध्ययन के मुताबिक कपड़ा और फैशन उद्योग की एक लंबी आपूर्ति शृंखला है, जो कृषि और फाइबर उत्पादन से लेकर आपूर्ति, विनिर्माण और खुदरा क्षेत्र तक फैली है।
शोधकर्ताओं ने पाया कि कपड़ा उत्पादन के हर चरण में पानी, रसायनों और ऊर्जा का बेतहाशा इस्तेमाल होता है। इसका गहरा असर पर्यावरण पर पड़ता है। शोध के मुताबिक फैशन उद्योग का वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में दस प्रतिशत हिस्सा है, जिसके 2030 तक लगातार बढ़ने की संभावना है। फैशन उद्योग हर साल 9.2 करोड़ टन से ज्यादा कचरा पैदा करता और 1.5 खरब टन पानी की खपत करता है। गौरतलब है कि दुनिया के उन सभी देशों में, जहां भी फैशन और कपड़ा उद्योग बड़े पैमाने पर हैं, पर्यावरण प्रदूषण और पानी की किल्लत दूसरे देशों की अपेक्षा बहुत अधिक है।
अब फैशन वाले कपड़ों का निर्माण तेजी से हो रहा है। जहां नए किस्म के कपड़े रोजाना बाजार में आ रहे हैं, वहीं ये सस्ते भी मिलते हैं। पिछले बीस सालों में लोगों में नए फैशन के प्रति गजब की अभिरुचि बढ़ी है। पहले जहां लोग किसी पर्व-त्योहार या विवाह-संस्कार के अवसर पर कपड़ों की खरीदारी करते थे, अब हर तीसरे-चौथे महीने नए फैशन के कपड़े खरीदने के लिए खरीदारी करने लगे हैं। यही वजह है कि सस्ता होने के बावजूद कपड़ा उद्योग कभी घाटे में नहीं रहता।
वस्त्र उद्योग, खासकर फैशन उद्योग से पर्यावरण को हो रही भारी क्षति के लिए ऐसी और वजहें हैं जिन पर शायद ही कोई गौर करता हो। एक दिलचस्प आंकड़ा आया है। उसके मुताबिक पिछले पंद्रह सालों में फैशन उद्योग दोगुनी गति से आगे बढ़ा है, लेकिन खरीदे गए कपड़ों को फेंकने के पहले पहनने के समय में चालीस प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है।
आंकड़े बताते हैं कि पहने गए कपड़ों को फेंक या जला दिया जाता है। गौरतलब है कि दोनों सूरत में पर्यावरण पर ही असर पड़ता है। जमीन में दबाने और पुनर्चक्रण के इस्तेमाल में महज बारह प्रतिशत आता है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक गांवों में फैशन के प्रति अभिरुचि शहरों की अपेक्षा बहुत कम है। इसलिए पर्यावरण की समस्या शहरों में लगातार बढ़ रही है।
‘स्टाइलिश’ दिखने की प्रवृति एक नशा जैसी होती जा रही है। इससे सेहत पर भी विपरीत असर पड़ रहा है। मसलन, शहरों की महिलाएं बड़े बैग लेकर चलना पसंद करती हैं, ताकि वे ज्यादा सामान भर सकें। यह आदत सेहत के लिए खतरनाक है। डाक्टरों के मुताबिक इससे कमर और गर्दन के दर्द की समस्या हो सकती है। एक शोध के मुताबिक कसे हुए कमीज के कालर और टाई पहनने से दिमाग तक खून का बहाव कम होने से आंखों की समस्याएं हो सकती हैं। पेंसिल स्कर्ट पहनना पैर में जकड़न पैदा कर सकता है। इस तरह फैशन ऐसी कई समस्याएं बढ़ा रहा है, जो जिंदगी की रफ्तार को मंद या बीमार कर सकती है।
फैशन के मौजूदा चलन को भले जीवन-शैली के नाम पर जायज ठहराया जाए, लेकिन फैशन उद्योग को दीर्धावधि तक सफल बनाए रखने की ऐसी कवायदें बेहतर नहीं हैं। गौरतलब है कि भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में इस्तेमाल करो और फेंको वाली विचारधारा भी फैशन में शामिल होने के कारण लोगों में दिखावे की आदत और पर्यावरण के प्रति लापरवाही बढ़ी है। शहरों में संवेदनहीनता की वजह से आसपास होने वाली गंभीर घटनाओं के प्रति भी लोग लापरवाह बने रहते हैं। इसलिए जहां पर्यावरण संबंधी समस्याएं बढ़ी हैं, वहीं हिंसक गतिविधियां और कई तरह के फसाद भी बढ़े हैं। इस तरफ भी गौर करने की जरूरत है।
भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में फैशन के नाम पर पहनावे, चीजों को इकट्ठा करने की आदत और इस्तेमाल करो और फेंको की आदत को भी पर्यावरण प्रदूषण और दूसरी तमाम समस्याओं के मद्देनजर बदलने की जरूरत है। भला अपना, समाज और कुदरत को नुकसान पहुंचा कर फैशन करना कहां की समझदारी है?