महाराष्ट्र की सियासत में सबसे बड़ा नाटकीय मोड़ आ गया है। उद्धव ठाकरे ने दो सालों तक एक सियासी जंग लड़ी, अपनी शिवसेना बचाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। लेकिन बुधवार को आया स्पीकर राहुल नार्वेकर के फैसले ने शिवसेना के इतिहास को हमेशा के लिए बदल दिया। अब से असल शिवसेना उद्धव वाली नहीं, शिंदे वाली कहलाएगी। यानी कि जब भी शिवसेना का जिक्र होगा, चेहरा एकनाथ शिंदे का रहेगा।

अब स्पीकर राहुल नार्वेकर के फैसले से एकनाथ शिंदे को शिवसेना तो मिल ही गई है, उनकी सीएम कुर्सी भी बच गई। असल में उद्धव गुट का तर्क था कि क्योंकि शिवसेना उनकी है, ऐसे में शिंदे द्वारा की गई बगावत के कोई मायने नहीं। यहां तक कहा गया कि उनकी विधायकी जाना तय है। लेकिन जिन तर्कों पर उद्धव गुट इतरा रहा था, स्पीकार राहुल नार्वेकर ने उन सभी की हवा निकालने का काम किया। एकतरफा फैसले में दो टूक कहा गया है कि चुनाव आयोग के रिकॉर्ड में शिंदे गुट ही असल शिवसेना है। ये भी साफ कर दिया गया है कि उद्धव ठाकरे, एकनाथ शिंदे को पार्टी से नहीं निकाल सकते, उनके पास वो ताकत ही नहीं है।

अब स्पीकर का फैसला तो एकनाथ शिंदे के लिए एक बड़ी जीत है, लेकिन उस जीत की असल पटकथा तो 20 जून 2022 को लिखी गई थी जब एकनाथ शिंदे ने बगावत कर दी। वो बगावत भी उन्हें शिवसेना के 40 और अन्य 10 के जरिए की। यानी कि कुल 50 विधायकों के समर्थन के साथ उन्होंने तब की महा विकास अघाड़ी सरकार को अल्मपत में लाने का काम कर दिया था। लेकिन सवाल ये उठता है कि आखिर किस तरह से और क्यों इस बगावत को अंजाम दिया गया?

अब इस बगावत की दो कहानिया हैं, एक सियासी और दूसरी वो घटनाक्रम जिसने महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी की सरकार गिरा दी। पहले घटनाक्रम की बात करें तो इस पूरे विवाद का जन्म एमएलसी चुनाव के वक्त शुरू हो गया था। कुल 10 सीटों पर वो चुनाव हो रहा था, लेकिन बीजेपी ने चालाकी दिखाते हुए एक अतिरिक्ट प्रत्याशी को मैदान में उतार दिया। शिवसेना, कांग्रेस और एनसपी समझ गई थी कि क्रॉस वोटिंग करवाने के लिए ऐसा किया गया।

बाद में पता चला कि क्रॉस वोटिंग की जो आशंका थी, वो एकदम सही निकली, उद्धव ठाकरे को ऐसे इनपुट भी मिल गए थे कि ये क्रॉस वोटिंग शिवसेना विधायकों की तरफ से ही हुई। ये उद्धव ठाकरे के लिए पहली खतरे की घंटी थी और उन्होंने तुरंत अपने पार्टी विधायकों की एक बैठक बुलाई। उस बैठक में ही खेल हो गया क्योंकि ना एकनाथ शिंदे उसमें पहुंचे और ना ही अन्य 11 विधायक।

शिवसेना में फूट पड़ चुकी थी, किसी बड़ी बगावत की सुगबुगाहट असलियत बनती दिख रही थी। इस झटके उद्धव उबर पाते, उससे पहले खबर आ गई कि सूरत में एक दर्शन से भी ज्यादा विधायक एक होटल पहुंच चुके हैं। बताने की जरूरत नहीं, उस होटल में उन विधायकों को ले जाने का काम एकनाथ शिंदे ने किया। अब शिंदे ने बगावत की शुरुआत कर दी थी, ऐसे में तत्काल प्रभाव से उद्धव ठाकरे ने वर्तमान सीएम को ही विधायक दल के पद से हटा दिया।

अब एक तरफ उद्धव गुट आक्रमक होने की कोशिश कर रहा था, शिंदे सिर्फ विधायकों को एकजुट रखने पर जोर दे रहे थे। इसी वजह से सूरत के बाद सभी विधायकों को लेकर असम के गुवाहाटी जाया गया। दूसरी तरफ उद्धव ने खतरे को समझते हुए महा विकास अघाड़ी के दूसरे दलों के साथ मीटिंग का दौर शुरू किया। उस मीटिंग में शरद पवार से लेकर कांग्रेस ने उद्धव के प्रति अपना समर्थन जाहिर किया, लेकिन अंदर-अंदर ही संदेश मिल चुका था- बड़ा और निर्णायक खेल हुआ है।

उस खेल का अंदाजा तब और स्पष्ट हो गया जब एकनाथ शिंदे ने सामने से आकर बोल दिया कि उनके पास शिवसेना के पास 40 से ज्यादा विधायकों का समर्थन है। इस नंबर पर इतना जोर इसलिए दिया गया क्योंकि संख्या कुछ कम रह जाती तो एंटी डिफेक्शन लॉ शिंदे समेत अन्य बागी विधायकों की लुटिया डुबो देता। लेकिन पूरे विवाद में यहीं शिंदे के लिए सबसे बड़ा प्लस प्वाइंट साबित हुआ, उनके पास संख्या बल थी, वो भी ऐसी जो सिर्फ कागजों या फिर दावों तक सीमित नहीं थी।

इस बात का अहसास उद्धव ठाकरे को भी था और इसी वजह से उन्होंने महाराष्ट्र की जनता के सामने इमोशनल अपील भी की। उस अपील में उन्होंने कहा था कि अगर बागी विधायक चाहते हैं कि वे सीएम पद छोड़ दें, वे ऐसा कर देंगे। लेकिन उद्धव का ये इमोशनल दांव भी शिंदे गुट को डिगा नहीं सका और जो बगावत की चिंगारी लगाई गई, वो पूरी आग में तब्दील हो चुकी थी। उसी आग की वजह से 23 जून को तीन और विधायकों ने उद्धव गुट का साथ छोड़ दिया और वो भी गुवाहाटी पहुंच गए। ये वो समय था जब उद्धव गुट बोलता रहा कि उनके विधायकों का किडनैप हुआ, दूसरी तरफ शिंदे ने उन विधायकों को कैमरे के सामने ला दिया।

इस बात में कोई संशय नहीं था कि बाजी पलट चुकी थी, उद्धव बस किसी तरह से आने वाले खतरे को टालना चाहते थे। उनकी मांग साफ थी, 16 के 16 विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया जाए। इसी कड़ी में दो निर्दलीय विधायक डिप्टी स्पीकर के खिलाफ ही अविश्वास प्रस्ताव लेकर आ गए। 34 विधायकों का भी उस पर साइन भी रहा। लेकिन उस प्रस्ताव को ही खारिज कर दिया गया। बताया गया कि वो प्रस्ताव किसी अज्ञात शख्स ने मेल किया, जबकि नियम के मुताबिक किसी विधायक को खुद पहल करनी चाहिए थी।

उद्धव गुट की छटपटाहट बढ़ती जा रही थी, वो बेचैनी उनके कार्यकर्ताओं में भी दिख रही थी। कुछ ने तो कानून हाथ में लेते हुए शिंदे गुट विधायकों के घर का घेराव किया, पथराव हुआ और स्थिति बिगड़ती चली गई। जब ये सब हो रहा था, बीजेपी बिल्कुल चुप थी। वो बस सब देख रही थी, शिंदे की तरफ से सारे दांव चलने का इंतजार कर रही थी। और फिर एक दिन बीजेपी ने अपना दांव चल दिया। तब के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को फ्लोर टेस्ट करने के लिए कह दिया। चिट्ठी के जरिए मांग की गई कि उद्धव सरकार बहुमत साबित करे।

राज्यपाल ने भी फुर्ति दिखाते हुए 30 जून को बहुमत साबित करने के लिए कह दिया। उद्धव सुप्रीम कोर्ट चले गए, फ्लोट टेस्ट के खिलाफ याचिका दायर की, लेकिन समय ऐसा खराब कि वहां से भी कोई राहत नहीं मिली। उद्धव समझ चुके थे कि अगर फ्लोट टेस्ट के लिए गए, उनकी सरकार का गिरना तय है। नंबर साथ था नहीं, ऐसे में उन्होंने इस्तीफा देना ही ठीक समझा। वहां इस्तीफा हुआ दूसरी तरफ बीजेपी ने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बना दिया। तो इस तरह शिवसेना भी शिंदे की हो गई और मुख्यमंत्री की कुर्सी भी उनके हाथ में आ गई।