‘इंटरनेशनल एयर ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन’ के मुताबिक, वायु यातायात लगातार बढ़ रहा है। इसके साथ ही ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन भी बढ़ रहा है। इसे देखते हुए यूरोपीय संसद ने घोषणा की है कि 2025 से हवाई यात्राओं पर पर्यावरणीय लेबल लगाने का प्रस्ताव लाया जाएगा। यह प्रणाली हवाई यात्रा करने वालों को उनकी उड़ानों के ‘क्लाईमेट फुटप्रिंट’ की जानकारी देगा।

हवाई यात्रा के दौरान जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार गैसों का एक तिहाई हिस्सा कार्बन डाइआक्साइड का होता है। दो तिहाई हिस्से के लिए दूसरे कारक जिम्मेदार होते हैं, खासकर ‘कंडेंसेशन ट्रेल्स’ या ‘कांट्रेल्स’, जो विमान के उड़ने के बाद गैस के गुबार के रूप में पीछे रह जाते हैं। ‘कांट्रेल्स’ तब बनते हैं, जब जेट विमानों के र्इंधन जलते हैं। इनमें किरासन तेल मिला होता है।

करीब आठ से 12 किलोमीटर की ऊंचाई पर कम तापमान की वजह से जेट विमान द्वारा छोड़ी गई कालिख के चारों ओर जलवाष्प संघनित हो जाते हैं। बर्फ के ये कण (क्रिस्टल्स) हवा में घंटों बने रह सकते हैं। ये ‘कांट्रेल्स’ भी ग्रीनहाउस गैसों की तरह वायुमंडल में गर्मी को रोकते हैं और इससे जलवायु पर उड़ान का दुष्प्रभाव बढ़ता है। जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में देखें तो ये ‘कांट्रेल्स’ कार्बन डाइआक्साइड उत्सर्जन की तुलना में 1.7 गुना ज्यादा विनाशकारी होते हैं।

‘कांट्रेल्स’ हवा में घंटों बने रह सकते हैं और वायुमंडल की गर्मी को रोके रखते हैं। इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि ‘कांट्रेल्स’ को नजरअंदाज करना अपेक्षाकृत आसान होता है। उपग्रह से प्राप्त आंकड़ों के जरिए उड़ान तय करने वाले उन रास्तों को छोड़ सकते हैं, जहां मौसम कांट्रेल्स के निर्माण में सहायक हो। पायलट भी अपने जेट विमान को 500-1000 मीटर नीचे उड़ा सकते हैं, जहां तापमान ज्यादा कम ना हो। जानकारों के मुताबिक, इसमें सिर्फ 1-5 फीसद ज्यादा र्इंधन लग सकता है और उड़ान का समय थोड़ा बढ़ सकता है।

इसका असर यह होगा कि कार्बन डाइआक्साइड के अलावा जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार अन्य चीजों में 30-80 फीसद की कमी आ सकती है। यूरोपीय संघ का मकसद है कि इन गैर-कार्बन डाइआक्साइड प्रभावों को भी भविष्य में होने वाले ‘यूरोपियन एमिशंस ट्रेडिंग एग्रीमेंट्स’ में शामिल किया जाए। यूरोपीय संसद के एक शुरुआती समझौते के अनुसार, वर्ष 2025 के बाद से हवाई कंपनियों को इन प्रदूषकों के बारे में जानकारी देनी होगी।

पेट्रोलियम से मिलने वाले किरासन को जलाने पर बड़ी मात्रा में कार्बन डाइआक्साइड का उत्सर्जन होता है, ज्यादा ऊंचाई पर इसके साथ ओजोन जैसी दूसरी ग्रीन हाउस गैस भी निकलती हैं। ई-केरोसीन का उत्पादन, हरित बिजली, पानी और हवा से मिली कार्बन डाइआक्साइड से क्लाइमेट-न्यूट्रल तरीके से किया जा सकता है।

सबसे पहले, इलेक्ट्रोलिसिस के जरिए हाइड्रोजन पैदा की जाती है और उसके बाद सिंथेटिक ई-केरोसीन बनाने के लिए उसमें कार्बन डाइआक्साइड मिलाई जाती है। समस्या यह है कि इसे कैसे सस्ता रखा जाए। इसके लिए ई-किरासन को सौर और पवन ऊर्जा की अधिकता में बनाने की जरूरत है जो अब तक इस नवीकरणीय ऊर्जा के लिए पर्याप्त नहीं है। ग्रीन हाइड्रोजन बनाने वाले, हवा से सीधे कार्बन डाइआक्साइड सोखने वाले और सिंथेटिक र्इंधन बनाने वाले नए संयंत्रों भी बनाने की जरूरत है।

विमानों के लिए एक और विकल्प है जैव – किरासन का, जिसे रेपसीड, जट्रोफा के बीजों से या फिर पुराने खाद्य तेलों से बनाया जा सकता है। इसके लिए छोटे पैमाने पर उत्पादन इकाइयां पहले से ही हैं, लेकिन ज्यादा मांग की पूर्ति के लिए इसके विस्तार की जरूरत पड़ेगी। बायो- किरासन के ज्यादा उत्पादन के लिए कृषि योग्य भूमि की भी काफी जरूरत होगी, जिसकी बहुत कमी है।