हमारे सौरमंडल में पृथ्वी ही एक ऐसा ग्रह है, जहां जीवन के लिए सभी अनुकूल परिस्थितियां मौजूद हैं। पृथ्वी पर तापमान की अनुकूलता, वायु और जल की उपलब्धता तथा जीवन के लिए जरूरी पोषक तत्त्वों की मौजूदगी ने हमारे जीवन को सुखद बनाया है। इन वजहों से पृथ्वी पर मानव जीवन की हर तरह की गतिविधि संभव हुई है। वर्ष 1800 के आसपास वैज्ञानिकों को लगने लगा कि जीवाश्म ईंधन को ऊर्जा स्रोत के रूप में इस्तेमाल करने की वजह से जलवायु में परिवर्तन हो रहा है।

सत्रहवीं सदी के शुरू में यूरोप में वाष्प इंजन के आविष्कार के बाद औद्योगीकरण की गति तेज हुई। मशीनों के बूते बड़े पैमाने पर उत्पादन होने लगा। इन उत्पादों की खपत और और कच्चे माल की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए पूरी दुनिया में नए बाजार की तलाश शुरू हुई। कारखानों में ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर जीवाश्म ईंधन और खनिज पदार्थों का प्रयोग किया जाने लगा। पर्यावरण नुकसान की कीमत पर प्रकृति का बेरहमी से शोषण उस वक्त से शुरू हुआ।

वायुमंडल में 52 फीसद कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढ़ गई

संयुक्त राष्ट्र ने भी इस बात की पुष्टि की है कि जीवाश्म ईंधन के प्रयोग से निकलने वाली गैसों से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है। वर्ष 1970 के दशक में वैज्ञानिकों ने पर्याप्त साक्ष्यों के आधार पर बताया कि वैश्विक ताप की वजह से पृथ्वी की सतह का तापमान लगातार बढ़ रहा है। वैज्ञानिक दृष्टि से वैश्विक ताप का अर्थ है ग्रीन हाउस गैसों के बढ़ते स्तर के कारण पृथ्वी की सतह के तापमान में वृद्धि, जबकि जलवायु परिवर्तन का अर्थ पृथ्वी की जलवायु में होने वाला दीर्घकालिक परिवर्तन से है। वर्ष 1972 में ब्रिटिश रसायनशास्त्री जेम्स लवलाक और सूक्ष्मजीव विज्ञानी लिन मार्गुलिस ने ‘गैया परिकल्पना’ प्रस्तुत किया। ‘गैया’ एक ग्रीक देवी का नाम है। इस परिकल्पना का नाम जेम्स लवलाक ने उपन्यासकार और नोबेल पुरस्कार विजेता विलियम गोल्डिंग के सुझाव पर रखा था। इस परिकल्पना में बताया गया कि पृथ्वी एक जीवंत प्रणाली है। इसमें जैविक और अजैविक दोनों घटक शामिल हैं।

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वर्ष 2000 में जेम्स लवलाक ने कार्बन डाइआक्साइड की अधिक मात्रा में मौजूदगी को पर्यावरण के लिए हानिकारक बताया था। आज वायुमंडल में 52 फीसद कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढ़ गई है। पृथ्वी की सतह का तापमान 2.5 फारेनहाइट तक बढ़ चुका है। रसायन वैज्ञानिक वालेस ब्रोकर का कहना है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि या जलवायु परिवर्तन की तुलना में वर्षा के अनुक्रम और समुद्र के स्तर में होने वाले परिवर्तन का मानव जीवन पर कहीं गहरा प्रभाव पड़ने की संभावना है। नासा के वैज्ञानिक ‘ग्लोबल वार्मिंग’ पर हर महीने रपट जारी करते हैं। पिछले वर्ष की रपट में नासा के वैज्ञानिकों ने अप्रैल 2024 को सबसे गर्म महीने के रूप में दर्ज किया था। इसके पहले वर्ष 2023 में उन्होंने बताया कि बीसवीं सदी के औसत तापमान की तुलना में 1.18 डिग्री सेल्सियस ज्यादा तापमान की वृद्धि हुई है। वैज्ञानिकों ने यह भी अनुमान लगाया है कि 2035 तक वैश्विक तापमान में 0.3 से 0.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है।

बहुत कम समय के लिए रही इस साल ठंडी

इन तथ्यों के आलोक में यह बात स्पष्ट है कि आने वाला हर अगला वर्ष अब कितना चुनौतीपूर्ण होगा। भारत में भी ऋतु चक्र में बदलाव की वजह से कहीं अति वृष्टि और कहीं अनावृष्टि जैसी स्थितियां पैदा हो रही हैं। आने वाला हर साल पिछले साल की तुलना में बढ़ते तापमान की वजह से मानव जीवन के साथ-साथ जलचर, थलचर और नभचर के लिए भी मुश्किल होता जा रहा है। इस साल जनवरी में ठंड का अंतराल बहुत छोटा रहा। जनवरी के अंत और फरवरी की शुरूआत में, खासकर बसंत पंचमी के बाद, मौसम में अचानक ऐसा परिवर्तन आया कि बसंत ऋतु के आगमन का जैसे पता ही नहीं चला। ऐसा लग रहा है कि हम सीधे शरद ऋतु से ग्रीष्म ऋतु में प्रवेश कर गए हैं। बसंत ऋतु की मस्ती, उल्लास-आनंद और मादकता हमारे जीवन से जैसे गायब है।

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पृथ्वी पर बढ़ते तापमान का खेती-किसानी पर भी व्यापक असर पड़ने की संभावना है। अक्तूबर के बाद और रबी की बुआई के समय आमतौर पर मौसम शुष्क रहा। सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि पिछले साल की तुलना में इस साल गेहूं की बुआई के रकबे में 12 लाख हेक्टेयर और दलहनी फसलों की बुआई के रकबे में आठ लाख हेक्टेयर की वृद्धि हुई है। बढ़ते तापमान की वजह से रबी की फसलों का उत्पादन प्रभावित हो सकता है। खासकर गेहूं की पैदावार पर बढ़ते तापमान का असर होना स्वाभाविक है। जाहिर है कि भारत की खाद्यान्न सुरक्षा भी इससे अवश्य प्रभावित होगी। रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से दुनिया की खाद्यान्न आपूर्ति शृंखला पहले से डांवाडोल है। मगर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने पहले शासकीय आदेश में पेरिस समझौते की शर्तें मानने से इनकार कर दिया।

पेरिस समझौते को ट्रंप ने मानने से किया है इनकार

पेरिस समझौता हर देश के लिए एक निश्चित समय सीमा के तहत वैधानिक जिम्मेदारी तय करता है। राष्ट्रपति ट्रंप खुद को ऐसी वैधानिक हदबंदी से परे मानते हैं। इससे वैश्विक स्तर पर जलवायु संकट का सामना करने के लिए हरित जलवायु कोष में वित्तीय संसाधन जुटाने के अभियान को धक्का लगेगा। यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि चीन के बाद कार्बन उत्सर्जन के मामले में अमेरिका दूसरे स्थान पर है। पर्यावरण की सेहत लगातार खराब हो रही है। ऐसे ज्वलंत मुद्दे पर अमेरिका की बेफिक्री समझ से परे है। हिंदी कवि जयशंकर प्रसाद की ये पंक्तियां दुनिया की तबाही से बेखबर ऐसे देश के नेतृत्व और व्यवहार को बयान करती है- ‘अपने में सब कुछ भर कैसे व्यक्ति विकास करेगा/ यह एकांत स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा।’

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साठ के दशक के अर्थशास्त्री ईएफ शूमाकर का कहना है कि औद्योगिक उत्पादन करते समय उन साधनों का उपयोग करना चाहिए, जिनका नवीकरण और दोबारा उत्पादन किया जा सके। ‘उपयोग करो और फेंक दो’ के बजाय उसे दोबारा उपयोग किया जा सके। शूमाकर यह भी मानते हैं कि पेट्रोलियम पदार्थों, कोयला और लोहे पर आधारित क्षणभंगुर सभ्यता से निश्चित ही वह सभ्यता बेहतर होगी, जो प्रकृति से सामंजस्यपूर्ण रिश्ता कायम करते हुए यह समझ विकसित कर सके कि आत्मसंयम, स्वयं आरोपित सीमा बंधन और अपनी सीमाओं का ज्ञान ये जीवनरक्षक गुण हैं। आर्थिक विकास एक सीमा तक ही लाभदायक है, जीवन में जटिलता का संचार एक सीमा तक ही संभव है। दक्षता और उत्पादकता के लिए प्रयास एक सीमा तक ही ठीक है। पुन: प्राप्त किए जा सकने वाले साधनों का उपयोग एक सीमा तक करना ही बुद्धिमानी है।

विकट वैश्विक समस्या के रूप हमारे सामने खड़ा जलवायु परिवर्तन

इस संदर्भ में यह सुझाव भी गौर करने लायक है कि जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए हमें अपनी जीवन शैली, जीवन दृष्टि और जीवन का ध्येय बदलना होगा। जलवायु परिवर्तन का सवाल आज एक विकट वैश्विक समस्या के रूप हमारे सामने खड़ा है। ऐसे समय में हमें महात्मा गांधी की यह चेतावनी याद आती है- एक समय आएगा जब अपनी जरूरतों को कई गुना बढ़ाने की अंधी दौड़ में लगे लोग, जब अपने किए को देखेंगे, तब कहेंगे कि अरे! हमने यह क्या किया।