क्या यह पॉलिटिकल ‘डेजा-वू’ है? मतलब किसी व्यक्ति द्वारा जीवन में हू-बहू एक ही अनुभव से दोबारा गुजरने का आभास। तमिलनाडु में फिर से हिंदी का राजनीतिक विरोध इसी बात का एहसास दिलाता है। तमिल राजनीति और यहां की सबसे बड़ी क्षेत्रीय पार्टी द्रवीड़ मुनेत्र कझगम (DMK) ने नई शिक्षा प्रणाली के उस मसौदे की मुखालफत की है, जिसमें गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी विषय को अनिवार्य बनाने की सिफारिश की गई है। शनिवार को डीएमके के अध्यक्ष एमके स्टालिन ने कहा कि तमिलनाडु के ख़ून में हिंदी है ही नहीं। स्टालिन का यह बयान उस वक्त आया जब 31 मई को के. कस्तूरीरंगन कमेटी ने नई शिक्षा प्रणाली के तहत स्कूलों में तीन भाषा के फॉर्मूले को लागू करने की बात कही। साथ ही गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी विषय को अनिवार्य बनाने की सिफारिश भी की।
इंडिया टुडे के मुताबिक एमके स्टालिन ने कहा कि डीएमके के सांसद मामले को संसद तक ले जाएंगे। उन्होंने कहा, “तमिलनाडु पर हिंदी को थोपने का मतलब है कि मधुमक्खी के छत्ते पर पत्थर मारना।” उन्होंने यह भी कहा कि अगर भारतीय जनता पार्टी की सरकार दक्षिण के राज्यों में हिंदी को थोपने की कोशिश करेगी तो वह उसके खिलाफ जंग का ऐलान कर देंगे। उन्होंने कहा कि इसकी वजह से देश में खाई बढ़ जाएगी। डीएमके की लोकसभा सदस्य कनिमोझी ने कहा कि उनकी पार्टी हिंदी का विरोध करेगी। उन्होंने कहा, “मैं बीजेपी को चेतावनी देती हूं कि यह कदम उसके लिए बर्बादी का कारण बनेगा।”
गौरतलब है कि तमिल राजनीति में हिंदी का विरोध 1937 के दौरान ही शुरू हुआ और भारत की आजादी के बाद भी जारी रहा। 1953 के एक आंदोलन में पार्टी के संस्थापक अन्नदुराई ने ने हिंदी नामों को साइनबोर्ड से हटाने का आंदोलन शुरू किया। उस दौरान डीएमके के प्रमुख रहे और तमिलनाडु के कई बार मुख्यमंत्री रहे दिवंगत एम करुणानिधि भी शामिल थे। 1963 में आधिकारिक भाषा अधिनियम के पारित होने के साथ ही तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन ने काफी तूल पकड़ लिया। 60 के दशक में डीएमके के जरिए हिंदी का विरोध छात्र आंदोलन का रूप ले लिया। राजनीतिक पंडित बताते हैं कि तमिल राजनीति में डीएमके को टॉनिक देने का काम हिंदी विरोध ही रहा।