राधिका नागरथ
आदिगुरु शंकराचार्य ने स्वयं को ना जानना आत्महत्या के समान बताया है। विवेक चूड़ामणि में आदि शंकराचार्य लिखते हैं कि दुर्लभ मनुष्य देह पा कर भी अगर मनुष्य अपनी मुक्ति के लिए श्रुति स्मृति से ज्ञान अर्जित नहीं करता है तो वह अनित्य को ही पकड़े रहता है और यह आत्महत्या के समान है। अगर हमारा ध्यान इस बात पर रहे कि आत्महत्या एक पाप है और खुद को ना जानना ही आत्महत्या है तो हम हर पल उस रास्ते पर चलेंगे, जिससे आत्म साक्षात्कार हो, जिससे जीवन जीने का मकसद साफ हो फिर कभी भी असत्य की तरफ भागने की इच्छा नहीं होगी।
आचार्य विनोबा भावे कहते थे कि भले ही थोड़ी देर के लिए असत्य की जय दिखाई दे तो भी आखिर में वह समूल नष्ट होने वाला है क्योंकि सत्य का ही अस्तित्व है। असत्य का नहीं। यह नित्य और अनित्य, सत्य असत्य का विवेक करने के लिए मन बाधित होगा और हम सदैव अपने लक्ष्य के प्रति पूर्ण शक्ति से अग्रसर होंगे।
जब भी किसी चीज का नुकसान हो या कोई हमारा अपना इस दुनिया से चला जाए तो यह विचार बहुत सुकून देता है कि जो अनित्य था, वह चला गया, नित्य हमेशा मेरे पास है जो है ही अनित्य, जिसका नाश होना ही है उसके लिए। कर के क्या लाभ, ऐसा मन को समझाने से हम नित्य में स्थित होते हैं और अनित्य के खो जाने पर खुद को संभाल पाते हैं और कभी भी नकारात्मक विचार ज्यादा देर तक मस्तिष्क में टिक नहीं पाते।
वेद कहता है उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत यानी तब तक ना रुको जब तक लक्ष्य हासिल ना हो जाए। ऐसा निरंतर विचार करने पर यह नकारात्मक विचार आत्मघाती विचार इंसान को छू भी ना पाएंगे। हर व्यक्ति आत्महत्या नहीं आत्म साक्षात्कार के लिए अहर्निश प्रयत्न करेगा।
मृत्यु प्राकृतिक हो या स्वरचित, दुखों का अंत करने का साधन नहीं है। बहुत बार देखने में आया हैं कि युवा जब परेशानियों से घिरते हैं तो अक्सर आत्मघाती हो, खुद का जीवन नष्ट करने के लिए आत्महत्या करते हैं पर क्या आत्महत्या करने से परेशानियां खत्म हो गईं? ऐसा नहीं है।
हिंदू धर्म में बहुत विस्तार से पुनर्जन्म को की व्याख्या की गई है और कर्म के सिद्धांत पर आधारित पुनर्जन्म ही एकमात्र ऐसा विचार नजर आता है, सैद्धांतिक दृष्टि से जो ठीक लगता है, वरना एक व्यक्ति का जन्म राजा के घर और दूसरा भिखारी के घर, यह अन्याय सा लगता है
अगर यह सब को भलीभांति समझ में आ जाए कि आत्महत्या से या जीवन खत्म कर देने से परेशानियां खत्म नहीं होती है, दोबारा जन्म लेना ही पड़ता है, जब तक कर्मों की पूर्ति ना हो जब तक इच्छाएं बाकी हैं। इच्छा ही तो दोबारा शरीर धारण करती है तो कभी मरने या मारने की प्रवृत्ति उजागर नहीं होगी।
वैश्विक बीमारी कोरोना ने बहुत लोगों को हताश निराश किया किंतु क्या इससे हार जाना और जीवन का अंत कर लेना उपाय है, यह बड़ा सवाल है। देखने वालों को लगेगा कि जिसने जीवन का अंत कर दिया, उसको मुक्ति मिल गई। परेशानियों से, कर्तव्य से मुक्ति, कष्ट सहने से मुक्ति, जूझने से मुक्ति, किंतु वे सूक्ष्म रूप में कारण शरीर द्वारा उन्हें भोगने और पूरा करने इस धरती पर आना ही होगा। जब तक की सभी वासनाओं की भी पूर्ति ना हो जाए।
शास्त्रों में कहा गया है कि जो व्यक्ति आत्महत्या करते हैं, उनकी आत्मा को जल्दी शरीर नहीं मिलता। उनको काफी देर भटकना पड़ता है। इच्छा होती है भोगने की, पर स्थूल शरीर और उसकी कर्मेंद्रियां ना होने के कारण वह जीव अपूर्ण भटकता रहता है।

