बेघर और गरीब लोगों की जिंदगी के स्याह पक्ष के ब्योरे देख कर ऐसा लगता है कि दुनिया में ऐसे लाखों लोग रहते हैं जिनकी जिंदगी जानवरों से भी गई बीती है। न सिर छिपाने के लिए कोई झोपड़ी, न खाने के लिए भोजन और न पहनने के लिए कपड़ा। भुखमरी और बीमारियों से लाखों की तादाद में लोग मरते हैं। दुनिया में इस तरह की तमाम जगहें हैं, जहां लोगों को सिर छिपाने के लिए ऐसा घर नहीं है, जहां वे ओस, कोहरे और विकट ठंड में खुद को सुरक्षित कर सकें।

इस वजह से हर साल हजारों लोग इस धरती से चल बसते हैं। दुनिया के भूगोल में दक्षिण-पूर्व में स्थित देश बुरुंडी, सियरा लियोन, मालावी, सोमालिया और अफगानिस्तान, जहां गरीबी सबसे ज्यादा है, जिंदगी बसर करने की मूलभूत सुविधाएं न होने से हर साल लाखों की तादाद में लोग मरते हैं, लेकिन भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, चीन जैसे तमाम देशों में भी सैकड़ों लोग मर जाते हैं।

यह तब है जब सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं लोगों को ठंड से बचाने की कोशिश में लगी रहती हैं। बड़े शहरों में संस्थाएं, लोग और प्रशासन बेघरों के लिए कपड़ों और रैन बसेरों के जरिए उन्हें ठंड से बचाने के लिए काम करती हैं, लेकिन छोटे शहरों और कस्बों में ऐसा कम देखा जाता है। यहां मदद करने की ज्यादा जरूरत होती है।

भारत के जंगलों में रहने वाले बहुत सारे लोगों की ठंड में इसलिए मौत हो जाती हैं, क्योंकि बचने के लिए उनके पास कोई आशियाना नहीं होता। तमाम योजनाओं के बावजूद अभी तक आवास योजनाओं का फायदा उन तक नहीं पहुंच पाया है। अशिक्षा और जागरूकता की कमी की वजह से मजलूमों के हालात में कोई बदलाव नहीं आया है।

दरअसल, राज्य सरकारों के जरिए बनाए गए रैन बसेरे या निराश्रितों के लिए आश्रय गृह के संबंध में बेघरों या मजलूमों को मालूम नहीं होता। अगर कभी उन्हें पता होता भी है तो डर या हिचकिचाहट की वजह से वे वहां तक पहुंच नहीं पाते, जहां से वे सरकारी योजनाओं का फायदा ले पाएं। कुछ राज्य सरकारों द्वारा ढूंढ कर रैन बसेरों तक ऐसे लोगों को लाने के लिए टीमें गठित की जाती हैं। इसके बावजूद ठंड में ठिठुरते हुए कई लोगों की जान चली जाती हैं। दिल्ली सरकार ने शहर के बेघरों को रहने और खाना खिलाने के लिए एक शीतकालीन कार्ययोजना शुरू की है।

इसके तहत बेघरों को सड़कों से हटाने के लिए कई टीमें बनाई गईं हैं। यह योजना पंद्रह मार्च तक चालू रहेगी। गौरतलब है कि दिल्ली में एक सौ सत्तानबे आश्रय स्थल हैं, जिनकी कुल क्षमता सात हजार बानबे लोगों के रहने की है। इसके अलावा टेंट के जरिए करीब दो सौ की तादाद में रैन बसेरे बनाए जाने की बात कही गई है। ऐसी घोषणाएं हर वर्ष होती हैं, लेकिन तमाम लोग हर साल ठंड से मर जाते हैं। इसलिए ऐसी योजनाओं पर कारगर तरीके से अमल की जरूरत है।

आजादी के सात दशक गुजर जाने के बाद भी भारत में हजारों लोग बेघर होने की वजह से ठंड या गर्मी में मरते रहे हैं। इस तरह बेघर लोगों का मरना यह बताता है कि हमारी विकास यात्रा में ऐसी तमाम खामियां हैं, जिसके चलते गांधी के अंतिम जन को सेहत, घर, खाना, कपड़ा, पानी और दूसरी सहूलियतें नहीं मिल पाई हैं। दरअसल, सरकारी योजनाओं का फायदा उस सबसे निरीह के पास तक नहीं पहुंच पातीं, जिनके लिए ये लागू की जाती हैं। बेघरों को आश्रय या घर देने का कार्य केंद्र सरकार ने लागू की हुई है। राज्य सरकारें भी बेघरों के लिए आश्रय स्थल बनाने के लिए कार्य-योजनाएं बनातीं हैं, लेकिन देश का अंतिम जन आज भी सरकारी कुप्रबंधन का शिकार है।

दरअसल, देश भर में लाखों बेघर लोगों को घर देने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने जो योजनाएं लागू कीं, उन पर बेहतर तरीके से अमल नहीं किया गया। हजारों ऐसे मामले संज्ञान में आते रहते हैं कि जिन्हें घर बनाने के लिए सरकारी मदद मिली, उन्होंने वह पैसा किसी दूसरे मद में खर्च कर दिया। इसलिए सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि योजना से हासिल धन का दुरुपयोग न होने पाए।

लेकिन ज्यादातर लोग ऐसे ही हैं जो दूरदराज इलाकों में जानवरों से भी बदतर जिंदगी जीने के लिए मजबूर हैं और उन तक योजनाओं का लाभ नहीं पहुंच पाता। जागरूकता न होने की वजह से ये घास-फूस की झोपड़ी में रहते हैं। ठंड इनके लिए आफत साबित होती है। इनके लिए स्वयंसेवी संगठन और कंपनियों की तरफ से कुछ ऐसा नही किया जाता, जिससे ये ठंड से बच सकें।

रोजी-रोटी की उम्मीद में शहर आए हर साल लाखों की तादाद में ग्रामीण इलाकों के लोगों के हालात ऐसे बन जाते हैं कि जिन्हें नौकरी नहीं मिली वे दाने-दाने के मोहताज हो जाते हैं। ऐसे बेघर लोगों के लिए रैन बसेरे ही महज रहने के ठिकाने होते हैं। मगर हजारों लोग ऐसे भी होते हैं, जिन्हें सरकारी आश्रय स्थलों की जानकारी नहीं होती और वे सड़क की पटरियों या पार्कों में रहने के लिए मजबूर होते हैं। सरकार द्वारा ऐसे लोगों को ढूढ़ कर आश्रय स्थलों में लाने की कार्ययोजना बनाई जाती हैं। मगर यह समस्या अब भी कायम है।

यों सभी राज्यों में बेघरों के लिए योजनाएं राज्य सरकारें चला रही हैं। ये योजनाएं सालों से चलाई जा रही हैं। इसके बावजूद आज भी बेघर लोगों की तादाद लाखों में हैं। उत्तर प्रदेश में इस साल बुजुर्गों के लिए सरकारी आवास योजना, बिहार सरकार की जमीन क्रय सहायता योजना (राज्य सरकार द्वारा पीएम आवास योजना में घर बनाने के लिए जमीन देना), हरियाणा में मुख्यमंत्री शहरी आवास योजना, झारखंड सरकार की अबुआ आवास योजना, छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री ग्रामीण आवास न्याय योजना, असम सरकार की आश्रय योजना के अलावा दूसरे तमाम राज्यों में भी बेघरों के लिए आवास देने की योजनाएं चलाई जा रही हैं। सवाल यह है केंद्र सरकार की प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी विराट योजना और राज्य सरकारों द्वारा चलाई जा रहीं आवास देने की योजनाओं के बावजूद देश में करोड़ों लोग बेघर क्यों हैं? ऐसे लोगों की मौत क्यों नहीं रोकी जा पा रहीं?

इन हालात से निपटने के लिए समाज में बेहतरी के लिए काम करने वालों को आगे आने की जरूरत है। अमेरिका, फ्रांस और जर्मनी जैसे तमाम देशों में ऐसी संस्थाएं और लोग हैं जो इंसानियत की हिफाजत के लिए ही कार्य करते हैं। भारत में भी इस तरह की कुछ संस्थाएं हैं, लेकिन इनके कार्य ऐसे नहीं हैं कि सर्दी, गर्मी और बरसात में बेघरों को ढूंढ़ कर इनके लिए आवास और रोटी की समुचित व्यवस्था करें।

दरअसल, भारत में इस तरह की संस्थाएं और लोग बहुत कम हैं जो बेघर लोगों को सरकारी योजनाओं के बारे में बताने का कार्य करते हों। अपनी सुख-सुविधाएं बढ़ाना ही आम लोगों की जिंदगी का मकसद हो गया है। ‘हम सुखी तो दुनिया सुखी’ का विचार हमारी जिंदगी का खास हिस्सा बन गया है। आज भी बेघरों की यह जटिल समस्या अगर खत्म नहीं हुई है तो उसकी दोषी सिर्फ सरकारें ही नहीं हैं, बल्कि हम सभी हैं, जो अपने धार्मिक और आध्यात्मिक होने की बात तो करते हैं, लेकिन गरीबों की मदद करने और उनकी समस्याओं के बारे में सरकार को बताने की जिम्मेदारी हमारे भीतर नहीं दिखती।