अवसाद एक ऐसी मानसिक स्थिति है, जिसमें लोग उदासी, अकेलापन या ऊर्जा की कमी अनुभव करते हैं। यह स्थिति कुछ दिनों, हफ्तों या महीनों तक बनी रह सकती है। अवसाद की स्थिति में व्यक्ति बेचैनी, चिड़चिड़ापन के साथ खुद को दोषी महसूस करता है। वह थकान, निर्णय लेने की क्षमता में कमी और आत्महत्या के विचार का सामना भी करता है। देखा जाए तो अवसाद की स्थिति मनुष्य के अनुभव करने, सोचने, कार्य करने और दुनिया को देखने के ढंग को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है।

राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2024 के अनुसार भारत में लगभग हर बीस में से एक व्यक्ति अवसाद से पीड़ित हो सकता है। यह सर्वेक्षण दर्शाता है कि भारत में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं। विश्व स्तर पर, लगभग 26.4 करोड़ लोग अवसाद से प्रभावित हैं। तुलनात्मक रूप से देखें तो महिलाओं में अवसाद अनुभव करने की संभावना अधिक होती है, लेकिन यह भी एक तथ्य है कि अवसाद किसी भी समय और किसी भी उम्र में हो सकता है।

ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरों में अवसाद अधिक है। एक अन्य रपट के अनुसार अविवाहित लोगों की तुलना में विवाहित लोगों में अवसादग्रस्त होने की संभावना 60 फीसद अधिक होती है। जबकि विवाहित व्यक्ति परिवार में रहता है, तो फिर क्यों अवसाद का शिकार होता है? क्योंकि कई बार परिवार या समूह में रह कर भी मनुष्य यह अनुभव करता है कि कोई उसे नहीं समझता, किसी के पास उसके लिए समय नहीं है। वह किसी से अपनी बात साझा नहीं कर पाता। ऐसे में खुद को अकेला पाता है।

संभवत: आज के दौर में प्रत्येक प्रकार के संबंधों में विश्वास का संकट उत्पन्न हुआ है। अकेलापन मनुष्य की घटती उम्र के लिए भी उत्तरदायी है। इसलिए शायद छोटी उम्र में दिल की बीमारी, रक्तचाप और कई तरह के मानसिक रोग होना सामान्य बात हो गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार अवसाद दुनिया भर में 30 करोड़ से अधिक लोगों को प्रभावित करता है।

विश्व स्थास्थ्य संगठन की एक रपट के अनुसार भारत में अवसाद के सर्वाधिक मरीज हैं। सूचना क्रांति के बाद से भारत में उपभोक्तावादी संस्कृति, व्यक्तिवादिता एवं दिखावे के उपभोग की प्रवृत्तियों में वृद्धि हुई है। दूसरी तरफ कोरोना महामारी के बाद से समाज में उत्पन्न अव्यवस्था एवं असंतुलन की स्थिति ने अवसाद और निराशा को अधिकांश लोगों की जिंदगी का हिस्सा बना दिया है। ऐसे में समाज में चारों तरफ नकारात्मक ऊर्जा दिखाई देती है।

जब युवाओं को अपना भविष्य असुरक्षित अनुभव होने लगे, प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रश्नपत्र सार्वजिनक हो जाएं और बहुप्रतीक्षित परीक्षा रद्द हो जाए, सफलता के बावजूद मनचाहे कालेज या नौकरी में प्रवेश न मिले और अगर नौकरी मिल भी जाए, तो बाद में निकाल दिए जाने का डर अवसाद पैदा करता है। वहीं काम के अधिक घंटे, किसी को भी अवसाद की तरफ धकेलने के लिए पर्याप्त हैं।

हमें अकेलापन और एकांत में अंतर करना होगा। अकेलापन मन की अवस्था है या एक मानसिक बीमारी की ओर इशारा करती है, जो मनुष्य को नकारात्मक विचारों की तरफ ले जाती है। दूसरी तरफ, एकांत आध्यात्मिक विकास की अवस्था है जो मनुष्य को सृजनशीलता या सकारात्मक विचारों की तरफ ले जाती है। अर्थात एकांत में रहना अवसाद की स्थिति को अभिव्यक्त नहीं करता। जबकि अकेलेपन का सामना कर रहे व्यक्ति अवसादग्रस्त हो सकते हैं। मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी कहा जाता है। क्योंकि वह समूह में अन्य सदस्यों के साथ रहने का आदी होता है, लेकिन भौतिकतावादी युग में भौतिक वस्तुओं के पीछे भागते-भागते उसके साथी और परिजन पीछे छूट जाते हैं और एक समय ऐसा आता है जब उसके पास बहुत कुछ होता है, लेकिन संगी-साथी नहीं होते। यही मनोभाव उसे अकेला कर देता है।

अकेलेपन के अलावा भी कुछ और कारण हैं जो अवसाद की स्थिति पैदा करते हैं। तनावपूर्ण जिंदगी की घटनाएं जैसे दुख, तलाक, बीमारी, बेरोजगारी, नौकरी या पैसे की चिंता, शारीरिक या मानसिक हिंसा, किसी नजदीकी व्यक्ति की मृत्यु या फिर वैवाहिक रिश्ते में खटास जैसे कारणों से भी व्यक्ति को अवसाद का सामना करना पड़ सकता है। जापान में आत्महत्या की घटनाएं बढ़ने पर वर्ष 2021 में ‘मिनिस्ट्री आफ लोनलीनेस’ यानी अकेलेपन को दूर करने के लिए मंत्रालय बनाया गया। इसका उद्देश्य लोगों को अवसाद से बाहर लाना, उन्हें अकेलेपन से मुक्त कराना और आत्महत्या करने से बचाना था। मगर इसके बावजूद आत्महत्या के मामलों में कमी नहीं आई।

इसका अर्थ है कि केवल मंत्रालय या विभाग बना देना इस समस्या का हल नहीं है। देखा जाए तो यह एक गंभीर चिंता का विषय है, जिसका समाधान करना परिवार, समाज और देश के विकास के लिए अत्यंत जरूरी है। अवसाद व्यक्तिगत समस्या नहीं, बल्कि पूरा का पूरा परिवार या समूह इसकी चपेट में हैं।

युवाओं को समझना होगा कि केवल उच्च प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में प्रवेश, अकादमिक सफलता, शानदार नौकरी और उच्च वेतन ही खुशहाल जिंदगी का प्रतीक नहीं। खुशी अगर भौतिक संसाधनों से मिलती, तो गौतम बुद्ध राजमहल छोड़ कर ठोकरें खाना नहीं चुनते। खुशी और संतुष्टि तो एक आंतरिक मन:स्थिति है, जो कई बार छोटी-छोटी बातों या कामों से या छोटी-सी उपलब्धि से भी मिल जाती है। खुश रहने के लिए ज्यादा परिश्रम करने की जरूरत नहीं पड़ती। इसके लिए जरूरी है अपनों का साथ होना। अपने परिवार का महत्त्व समझना, रिश्तों में प्यार और विश्वास होना, दूसरों के साथ बराबरी का व्यवहार करना। जरूरत पड़ने पर दूसरों की सहायता करना। यह सब कुछ आजकल के जीवन से गायब होता जा रहा है। यही कारण है कि आज अवसादग्रस्त पीढ़ी का समाज बनता जा रहा है।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बढ़ते भौतिकवाद, दिखावे की संस्कृति, शैक्षणिक दबाव, माता-पिता की अपेक्षाओं, बदलते सामाजिक मानदंड, सामाजिक अलगाव, पारिवारिक संघर्ष और आर्थिक तंगी जैसे पक्षों ने युवाओं को अवसाद के अंधकार में धकेल दिया है। इस पर भी दुविधा यह है कि अवसाद जैसे किसी भी मानसिक विकार पर चर्चा करना अच्छा नहीं माना जाता है। नतीजा लोग इसका समय पर उपचार नहीं करा पाते।
आज के दौर में जब संवादहीनता की स्थिति बढ़ गई है, तो यह समस्या और भी गंभीर रूप ले रही है। कहते हैं कि परस्पर संवाद से ही किसी भी बात का हल निकाला जा सकता है क्योंकि कोई भी समस्या मानव के हौसलों से बड़ी नहीं हो सकती। जीवन में धैर्य, साहस, आशा और सकारात्मकता से सब कुछ संभव है। इस चुनौती का सामना करने के लिए किसी भी एक समूह या संस्था की भूमिका तय नहीं की जा सकती। जरूरी है कि प्रशासन, शैक्षणिक संस्थाएं, साहित्यकार और परिवार सभी अपने-अपने स्तर पर इसको दूर करने के प्रयास करें। क्योंकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ नागरिक ही किसी भी समाज और देश के विकास और प्रगति में भूमिका निभा सकते हैं।