Delhi Election Kejriwal Revadi Politics: दिल्ली चुनाव में एक बार फिर अरविंद केजरीवाल की सियासी रेवड़िया सक्रिय रूप से काम कर रही हैं। कभी महिलाओं को हर महीने ₹2100 देने का ऐलान, कभी बुजुर्गों को मुफ्त इलाज की घोषणा, कभी दलित बच्चों के लिए स्कॉलरशिप, चुनावी मौसम में आम आदमी पार्टी हर कीमत पर एक बार फिर सत्ता पर काबिज होना चाहती है।
अब जानकार बताते हैं कि अरविंद केजरीवाल की योजनाएं एक तरफ उन्हें वोट तो दिलवा सकती हैं, लेकिन दिल्ली की आर्थिक स्थिति पर इसका बुरा असर देखने को मिल सकता है। अगर आरबीआई के ही पिछले कुछ सालों के आंकड़े निकाल कर देखें तो स्थिति काफी चिंताजनक दिखाई देती है।
बात अगर दिल्ली की मुफ्त बिजली योजना की करें तो सालाना इस पर केजरीवाल की सरकार 3600 करोड़ रुपये खर्च कर रही है। जो पानी पर सब्सिडी देने की बात होती है, उस पर भी सालाना 500 करोड़ तक का खर्च आ रहा है। इसके ऊपर महिलाओं को जो फ्री बस सेवा दी गई है, उस पर भी सरकार के खजाने से हर साल 440 करोड़ रुपये निकल रहे हैं।
अब इन फ्री की योजनाओं से एक तरफ वोट तो मिल रहे हैं, लेकिन आरबीआई के ही आंकड़े बता रहे हैं कि राजधानी कर्ज में डूबती जा रही है। बात अगर साल 2020 की करें तो दिल्ली पप 3,631 करोड़ रुपये का कर्ज था, यह 2021 में बढ़कर 9,464 करोड़ तक चला गया। इसके बाद 2022 में आंकड़ा सीधे 15,689 करोड़ दर्ज किया गया। अब 2025 को लेकर कहा जा रहा है कि यही कर्ज 15,881 करोड़ तक जा सकता है।
दिल्ली सरकार का ही वित्त विभाग मानता है कि महिलाओं को जो 2100 रुपये हर महीना देने का ऐलान किया है, इससे राजधानी का आर्थिक बजट बिगड़ सकता है। वित्त विभाग ने यहां तक कहा है कि महिला सम्मान पर जो अभी तक बजट का 15 फीसदी हिस्सा खर्च किया जा रहा है, अगर सब्सिडी का दायरा बढ़ा दिया जाता है तो यह आंकड़ा 20 फीसदी तक चला जाएगा। अब दिल्ली में आप सरकार की तरफ से जो फ्री वाली योजनाओं को चलाया जा रहा है, इस पर दिल्ली हाई कोर्ट भी चिंता व्यक्त कर चुका है। इसी साल 26 नवंबर को आतिशी सरकार को तब फटकार पड़ी थी जब कहा गया कि बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने के लिए ज्यादा काम नहीं हुआ।
तब हाई कोर्ट ने यहां तक कहा था कि राजनेता ना तो शहर के विकास के लिए कोई पैसा खर्च कर रहे हैं और ना ही कहीं से पैसा इकट्ठा करते दिख रहे हैं। केवल मुफ्त की योजनाओं पर पैसा खर्च किया जा रहा है। अब कोर्ट की यह दलील मायने रखती है क्योंकि अगर अदालतें भी फ्रीबीज पर सवाल उठाने लग जाएं, अगर उनकी तरफ से इन योजनाओं को बहुत ज्यादा उत्साह की नजह से ना देखा जाए, स्थिति गंभीर मानी जा सकती है।