Delhi Election 1993: दिल्ली चुनाव सिर पर है, तमाम पार्टियां प्रचार कर वोटरों को लुभाने में लगी हुई हैं। लेकिन दिल्ली का आज का चुनाव बहुत अलग है, उस चुनावों से तो बहुत ही ज्यादा जब फ्री की रेवड़ियां वोटिंग का आधार नहीं बनती थीं, जब रोहिंग्या मुस्लिम जैसे मुद्दे नहीं छाए रहते थे। तब तो मंदिर मुद्दा होता था, जो ठीक-ठाक सुविधा दे दे, उसको वोट देने की बात होती है।

‘मैं हूं दिल्ली’ के सेकेंड पार्ट में आज बात करते हैं दिल्ली के दूसरे चुनाव की। इसे दिल्ली का पहला पूर्ण विधानसभा वाला चुनाव भी कहा जा सकता है। यह चुनाव 1993 में हुआ था। यह उस दौर की कहानी है जब बीजेपी कम अनुभव वाली एक पार्टी थी जिसे हर कोई सिर्फ हिंदुत्ववादी मानता था। लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता अपने दम पर पार्टी को आगे बढ़ा रहे थे। दिल्ली बीजेपी के पास भी तब तीन सबसे बड़े चेहरे थे- विजय कुमार मल्होत्रा, केदारनाथ साहनी और मदनलाल खुराना।

चुनाव हुआ और जब नतीजे आए, सभी हैरान, राम मंदिर आंदोलन ने वो कमाल कर दिखाया जिसका अनुमान किसी ने नहीं लगाया। जिस दिल्ली ने सिर्फ कांग्रेसी सीएम देखे थे, उसे पहली बार बीजेपी का मुख्यमंत्री मिलने वाला था। उस चुनाव में बीजेपी ने 70 में से 49 सीटें जीत लीं, कांग्रेस को महज 14 सीटों पर रोक दिया गया। जनता पार्टी को भी कुछ सीटें मिलीं, निर्दलीयों का खाता भी खुला, लेकिन बीजेपी के पास आया स्पष्ट जनादेश।

बीजेपी के उस चुनाव की सबसे बड़ी खासियत यह रही कि उसने कोई सीएम फेज घोषित नहीं किया था। जिस रणनीति पर बीजेपी आज चल रही थी, 1993 में भी वैसा ही हाल था। लेकिन एक बड़ा अंतर भी। तब बीजेपी के पास मदन लाल खुराना जैसा नेता था जो लोकप्रिय था, स्थानीय था और सबसे बड़ी बात, सीएम बनने का पूरा दमखम रखता था। इसी वजह से सीएम फेज घोषित ना करकर भी बीजेपी ने खुराना की लीडरशिप में चुनाव लड़ा और कामयाबी हासिल कर ली।

इसी वजह से जब सीएम चुनने की बारी आई, बीजेपी ने मदनलाल खुराना को ही अपना नेता चुना। असल में राजनीति में आने के बाद खुराना ने बीजेपी को दिल्ली में खड़ा करने का जिम्मा लिया था। उन्होंने दिल्ली में इतनी मेहनत की कि उन्हें दिल्ली का शेर कहा जाने लगा। 1993 में भी यमुना पार वाले इलाके और मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में उनकी सटीक रणनीति ने ही कांग्रेस के सारे समीकरण बिगाड़ दिए थे।

अब मदनलाल खुराना दिल्ली के सीएम जरूर बने, लेकिन यह कुर्सी उनके पास सिर्फ 2 साल और 86 दिन ही रह पाई। सुब्रमण्यम स्वामी ने तब एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर खुराना की सियासी जमीन हमेशा के लिए हिला दी। उन्होंने दावा किया कि कारोबारी सुरेंद्र जैन को 1991 में आडवाणी ने 2 करोड़ रुपये दिए। अब सुरेंद्र जैन को लेकर कहा गया कि वो अलगगाववादी संगठन JKLF की फंडिंग करता है। इसके बाद मामले की जांच सीबीआई के पास गई और एक डायरी हाथ लग गई।

उसी डायरी में मदनलाल खुराना का नाम भी सामने आ गया, कहा गया कि उन्हें तीन करोड़ रुपये रिश्वत मिली है। आरोप गंभीर था और इस्तीफा देने का दबाव उससे भी ज्यादा। बड़ी बात यह रही कि इसी मामले में क्योंकि आडवाणी का नाम भी आया, उन्होंने नैतिकता दिखते हुए इस्तीफा दे दिया और ऐलान किया कि जब तक खुद को बेदाग साबित नहीं कर देंगे, चुनाव नहीं लड़ेंगे। अब उन्होंने तो ऐलान किया ही, खुराना से भी इस्तीफा दिलवा दिया गया। इसी वजह से अपने कार्यकाल से पहले ही खुराना की सीएम कुर्सी चली गई।

लेकिन जैसा बताया गया कि 1993 चुनाव के बाद से बीजेपी का असल सियासी वनवास शुरू हो चुका था। खुराना से सीएम कुर्सी छिनी तो बीजेपी ने सहमति बनाकर साहिब सिंह वर्मा को मुख्यमंत्री बना दिया। लेकिन वे भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए और भ्रष्टाचार और प्याज की बढ़ती कीमतों ने उनकी आंखों से सियासी आंसू निकलवा ही दिए। साहिब सिर्फ 2 साल 228 दिनों तक ही दिल्ली की सीएम कुर्सी पर काबिज रह पाए। उनके कार्यकाल के दौरान जब प्याज के दाम 80 फीसदी तक बढ़ने लगे, उन्हें समझ आ गया था कि खेल बिगड़ गया है, सत्ता जा सकती है।

इसी वजह से बीजेपी ने फिर दिल्ली विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बड़ा एक्सपेरिमेंट किया। महिला चेहरा सुष्मा स्वराज को दिल्ली का सीएम बना दिया। लेकिन मात्र 52 ही वो कुर्सी उनके पास टिक पाई और प्याज की कीमतों ने उनके खिलाफ माहौल बना दिया। सुष्मा स्वराज वो आखिरी नेता रहीं जिन्हें बीजेपी की तरफ से सीएम घोषित किया गया। उसके बाद तो तमाम चुनाव हुए, लेकिन बीजेपी की पुरानी वाली स्थिति नहीं लौट पाई। ‘मैं हूं दिल्ली’ सीरीज का पहला पार्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें