Delhi Election 2025: ‘मैं दिल्ली हूं’ के छठे पार्ट में बात 2013 के चुनाव की, जिसने राजधानी की राजनीति और कांग्रेस की तकदीर को हमेशा के लिए बदल कर रख दिया। एक ऐसा चुनाव जिसने देश को एक नई पार्टी दी थी, एक ऐसा चुनाव जिसने बीजेपी को फिर से उठने का मौका दिया और एक ऐसा चुनाव जब भ्रष्टाचार सही मायनों में सबसे बड़ा मुद्दा बन गया।
जनलोकबाल बिल और परिवर्तन की आंधी
2013 का चुनाव उस वक्त हुआ था जब शीला सरकार के खिलाफ एंटी इनकमबेंसी चरम पर पहुंच चुकी थी। एक तरफ राजधानी ने निर्भया केस देखा था, दूसरी तरफ कॉमन वेल्थ और कई दूसरे घोटालों ने यूपीए और शीला सरकार दोनों की छवि को खराब कर दिया था। इस सब के ऊपर जनलोकपाल बिल को लेकर अन्ना हजारे का आंदोलन छिड़ा हुआ था। यानी कि एक साथ तीन चुनौतियां कांग्रेस को कमजोर कर रही थीं।
भ्रष्टाचार नेरेटिव में फंसती गई कांग्रेस
अब जब तक अन्ना आंदोलन चलता रहा, किसी भी नई पार्टी आने के कोई आसार नहीं थे। ऐसा इसलिए क्योंकि अन्ना हजारे ऐसा नहीं चाहते थे। लेकिन अन्ना के साथ अरविंद केजरीवाल, राघव चड्ढा, मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास जैसे कई दूसरे लोग भी मौजूद थे। चाहते तो वो भी परिवर्तन थे, भ्रष्टाचार मुक्ति, लेकिन एक समय बाद उनकी रणनीति अन्ना से अलग हो गई। उस अलग रणनीति ने ही आम आदमी पार्टी को जन्म दिलवाया और दिल्ली में कांग्रेस की सबसे बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई।
आम आदमी वाली राजनीति का असर
2013 का दिल्ली चुनाव वैसे तो कई मुद्दों पर लड़ा गया, लेकिन सबसे प्रमुख भ्रष्टाचार, जनलोकपाल बिल, बिजली कंपनियों की धोखाधड़ी जैसे मुद्दों पर केंद्रित रहा। कहना चाहिए कि आम आदमी पार्टी एक नई तरह की राजनीति की बात कर रही थी, वो दिल्ली की जनता को वीआईपी कल्चर से मुक्ति दिलवाना चाहती थी। वो हर कीमत पर एक ऐसी राजनीति स्थापित करना चाहती थी जहां नेता भी जनता की तरह जमीन पर रहें, उनके बीच रहें।
2013 के चुनावी नतीजे कैसे रहे?
अब इस विकल्प वाली राजनीति का असर दिल्ली चुनाव में साफ देखने को मिला। नतीजे आए तो बीजेपी तो 31 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बन गई, लेकिन सभी को चौंकाने वाला काम नई-नई आई आम आदमी पार्टी ने कर दिया। 28 सीटें जीतकर उस पार्टी ने कांग्रेस का दिल्ली से सफाया कर दिया। किसने सोचा था जिस पार्टी ने 15 सालों तक दिल्ली पर राज किया, उसका सीटों का खाता सिंगल डिजिट में आकर रुक जाएगा। लेकिन जो नहीं सोचा, कांग्रेस का वैसा ही हाल हुआ और 24.55 फीसदी वोट शेयर के साथ सिर्फ 8 सीटें हासिल हुईं।
केजरीवाल की ग्रैंड एंट्री, शीला हार गईं
ऐसा देखा गया कि कांग्रेस जो 2008 के मुकाबले जितना बड़ा नुकसान हुआ, उसका सारा फायदा आम आदमी पार्टी को चला गया। झुग्गी झोपड़ी वाले इलाकों से लेकर मुस्लिम बाहुल सीटों पर आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन अप्रत्याशित दिखा, अर्बन वोटर्स में भी कांग्रेस के मुकाबले वो बेहतर विकल्प बनती दिखी। बड़ी बात यह रही कि तब अरविंद केजरीवाल ने सबसे बड़ा खेल करते हुए शीला दीक्षित को नई दिल्ली सीट से एक बड़े अंतर से हरा दिया था। 25864 वोटों के अंतर से एक छोटी सीट पर जीत एकतरफा मानी गई।
कांग्रेस से गठबंधन करने की कहानी
अब दिल्ली के इस जनादेश ने सबसे बड़ा खेल यह किया कि कांग्रेस को खराब प्रदर्शन के बाद भी किंगमेकर की भूमिका में ला दिया। एक तरफ बीजेपी बहुमत से पांच सीटें दूर रही तो वहीं आम आदमी पार्टी 8 सीटें। लेकिन 8 सीटें लेकर कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को समर्थन देने की बात कर दी। अब आम आदमी पार्टी के सामने संकट बड़ा था, जिस कांग्रेस को हराकर सत्ता हासिल की, उसके साथ जाना शायद सबसे बड़ा ब्लंडर साबित हो सकता था। ऐसे में केजरीवाल ने अपनी सफल रणनीति अपनाते हुए फिर दिल्ली की जनता पर यह फैसला छोड़ दिया। सवाल रहा- क्या कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चलानी चाहिए?
49 दिन में केजरीवाल का इस्तीफा
जवाब हां में था और कांग्रेस ने बाहर से समर्थन कर दिया। केजरीवाल ने साफ कर दिया था कि समर्थन बिना किसी शर्त के मिलेगा और सरकार उनके मुताबिक ही चलेगी। लेकिन उस समर्थन से केजरीवाल सिर्फ 49 दिन ही अपनी पहली सरकार चला पाए और फिर इस्तीफा दे दिया। वहां भी माहौल ऐसा बनाया गया कि जनलोकपाल बिल को लेकर कांग्रेस और बीजेपी ने समर्थन नहीं किया और क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई समझौता नहीं करना था, इस वजह से इस्तीफा देना ही ठीक समझा गया।
लेकिन उस एक इस्तीफे ने अरविंद केजरीवाल को जनता के बीच मसीहा बना दिया और फिर जब 2015 में फिर दिल्ली में विधानसभा चुनाव हुए, आम आदमी पार्टी की आंधी ने बीजेपी और कांग्रेस दोनों का सफाया कर दिया और राजधानी में एक नई तरह की राजनीति को स्वीकृति मिल गई। दिल्ली चुनाव 2008 की कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें