Delhi Assembly Polls 2020: दिल्ली विधानसभा चुनाव की गहमा-गहमी में दिल्ली को फिर से एक शीला दीक्षित की तलाश है, जो चुनाव जीतने के लिए चलताऊ घोषणा करने के बजाय दिल्ली की बेहतरी के लिए ठोस योजना सामने लाए और अपने लोगों से मौजूदा बहुशासन प्रणाली में ही वह काम कर के दिखाए जिसकी दिल्ली को जरूरत है। राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी के लिए शीला को समय कम मिला लेकिन जिस 17 हजार करोड़ से ज्यादा के उन पर भ्रष्टाचार के आरोप थे, उसमें ही वे हजारों रुपए शामिल थे जो दिल्ली मेट्रो रेल के अगले चरण के लिए दिए गए, करीब चार हजार आधुनिक और लो फ्लोर बसें दिल्ली में चलने लगीं। सबसे बड़ा काम तो दिल्ली के लिए बिजली पर हुआ। दिल्ली में कोयला से बिजली बनने पर रोक के बाद गैस आधारित बिजली घरों का उत्पादन एक सीमा से ज्यादा नहीं हो सकता है तो उन्होंने हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में दिल्ली के लिए बिजली उत्पादन के लिए पैसे खर्च किए। सरकार जाने से पहले वे कहती थीं कि दिल्ली में बारह हजार मेगावाट बिजली की मांग को पूरा करने की क्षमता उन्होंने विकसित की है।

फ्लाईओवर, अंडरपास, फुट ओवरब्रिज से दिल्ली तब ही परिचित हो पाई थी। लाल किला के सलीमगढ़ किले के ऊपर से कोई सड़क निकल सकती है या बारापुला नाले को ढक कर इतना बड़ी सड़क बनाई जा सकती है या लक्ष्मी नगर चुंगी सिग्नल फ्री किया जा सकता है या विकास मार्ग के समानांतर नाले को ढक कर चार लेन की सड़क बनाकर पूरे यमुना पुस्ते को सिग्नल फ्री किया जा सकता या दर्शनीय सिग्नेचर ब्रिज दिल्ली में भी बन सकता है, जैसी तमाम चीजें दिल्ली के बड़े कांग्रेसी नेताओं के बजाय बाद में उन्ही कामों के बूते बड़ा बनेने वाले डॉ अशोक कुमार वालिया, अरविंदर सिंह लवली, अजय माकन, हारून यूसुफ, योगानंद शास्त्री, किरण वालिया आदि मंत्रियों के सहयोग से और अभी सरकार चला रहे अरविंद केजरीवाल जिन अफसरों से लड़ते रहे, उन्हें अधिकारियों के बूते पूरा कराया। यह सिलसिला लगातार 15 साल चला।

दिग्गज कांग्रेसी नेता पंडित उमाशंकर दीक्षित की वे बहु थीं लेकिन बाद में उनकी राजनीतिक उत्तराधिकारी बन गई। राजीव गांधी सरकार में प्रधानमंत्री कार्यालय की मंत्री रही शीला दीक्षित को 1998 में पूर्वी दिल्ली लोकसभा चुनाव में पराजित होने के बाद दिल्ली कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। उनकी अगुआई में दिल्ली कांग्रेस ने चुनाव जीतना सीखा। जिस हालत में आज कांग्रेस है वैसे ही हाल में तब कांग्रेस थी। दिल्ली कांग्रेस में दर्जन भर गुट थे। चौधरी प्रेम सिंह को प्रदेश अध्यक्ष से हटाने के लिए सभा एकजुट थे। दीक्षित के दिल्ली की मुख्यमंत्री बनने के बाद सारे नेता उन्हें अपने इशारे पर चलाने का प्रयास करने लगे।

पहले तो दीक्षित अपनी कुर्सी बचाने में लगी। संयोग से तब भी सुभाष चोपड़ा को उनकी जगह पर प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। 2003 का चुनाव आते-आते दिल्ली में बसपा मजबूत होने लगी और आज के आम आदमी पार्टी (आप) की तरह कांग्रेस के वोट खिसकने के हर से कांग्रेस ने चुनाव के ठीक पहले सुभाष चोपड़ा को विधानसभा अध्यक्ष बनाकर दलित नेता चौधरी प्रेम सिंह को फिर से अध्यक्ष बना दिया गया, वे विधानसभा अध्यक्ष थे। संदेश जाने लगा कि कांग्रेस की जीत के बाद शीला के बजाय प्रेम सिंह मुख्यमंत्री बनेंगे। दीक्षित ने तब के विधायकों को फिर से टिकट दिलवाने का अभियान चलाया।

चुनाव परिणाम के बाद प्रेम सिंह के अनुरोध पर पार्टी नेतृत्व ने वरिष्ठ नेता प्रणव मुखर्जी को पर्यवेक्षक बनाकर विधायकों की राय जानने का जिम्मेदारी दी। विधायकों ने दीक्षित के पक्ष में राय दी। 2008 विधान सभा चुनाव आते-आते दीक्षित बीमार रहने लगीं। उन्हें भरोसा ही नहीं था कि वे तीसरी बार दिल्ली की मुख्यमंत्री बन पाएंगी। भाजपा के ठीक चुनाव के समय डा. हर्षवर्धन को बदल कर वरिष्ठ नेता विजय कुमार मल्होत्रा को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाकर दीक्षित की राह आसान कर दी। मल्होत्रा 1967 में दिल्ली के मुख्य कार्यकारी पार्षद (मुख्यमंत्री के समकक्ष) थे। बाद में वे राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय हो गए। एक पूरी पीढ़ी उनसे अपरिचित थी। दीक्षित की अगुआई में कांग्रेस तीसरी बार चुनाव जीत गई।

2008 का विधानसभा चुनाव जीतने के बाद दीक्षित ने पूरे मन से राष्ट्रमंडल खेलों के तैयारी शुरू करवाई लेकिन खुद सरकारी काम की उपेक्षा करने लगीं, परिणाम हुआ कि उनके फैसलों पर कुछ लोग हावी होने लगे। माना जाता था कि अगर तीसरी बार वे खुद मुख्यमंत्री बनने के बजाय डॉ वालिया या किसी दूसरे नेता को मुख्यमंत्री बनावा देतीं तो दिल्ली की तस्वीर अलग होती। शीला दीक्षित की सरकार पर कमजोर पकड़ के कारण ही आप दिल्ली में हावी हुई और कांग्रेस के आकलन के विपरित कांग्रेस के वोटरों को ही अपने पक्ष में कर लिया।

कांग्रेस के शासन के फ्लाईओवर ही नहीं अस्पताल, स्कूल आधे अधूरे ही रहे, पूरी दिल्ली की सड़कें टूटी पड़ी है। सालों से एक भी सरकारी बस नहीं खरीदी गई। कलस्टर बसों का ही उद्घाटन करके मुख्यमंत्री केजरीवाल प्रसन्न होते रहे। काम करने के बजाय आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति चलती रही। शीला दीक्षित के बाद कांग्रेस हाशिए पर चली गई। दिल्ली और कांग्रेस को बचाने के लिए एक शीला दीक्षित की जरूरत है। चुनाव होंगे कोई सरकार बनेगी लेकिन दिल्ली बेहाल रहेगी।