इस सूची में तोपें, असाल्ट राइफल, परिवहन विमान, रडार और कई दूसरी चीजें शामिल हैं। रक्षा मंत्रालय का कहना है कि इन वस्तुओं की सूची को रक्षा मंत्रालय ने सभी संबंधित पक्षों ने परामर्श करने के बाद तैयार किया है।
इसमें सेना, निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग भी शामिल हैं, ताकि वर्तमान और भविष्य में युद्ध उपकरणों को तैयार करने की क्षमता का आकलन किया जा सके। इस नीति को चरणबद्ध तरीके से दिसंबर 2025 तक लागू कर दिया जाएगा। हाल में सरकार ने चौथी सूची 928 पुर्जों की जारी की है। लेकिन बड़ी रक्षा जरूरतों को लेकर विदेशों पर अभी भी निर्भरता है। भारत में आज भी जो रक्षा उपकरण बन रहे हैं, उनमें से कई के पुर्जे विदेशों से बन कर ही आते हैं।
बजट का सवाल
रक्षा अनुसंधान एवं विकास के लिए आबंटित बजट के मामले में भारत चीन से काफी पीछे है। फरवरी 2022 की शुरुआत में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2022 के बजट में वर्ष 2022-23 के लिए रक्षा बजट में कुल 70,23 बिलियन अमेरिकी डालर का आवंटन किया, जो राष्ट्रीय बजट का लगभग 13.3 फीसद है।
इस बजट में अनुसंधान और विकास (आर एंड डी) के लिए आबंटित हिस्सा 1.24 बिलियन अमेरिकी डालर है जो बेहद छोटी राशि है, और कुल रक्षा बजट का महज 1.7 फीसद है। इतने कम आबंटन को लेकर निजी क्षेत्र के उद्योगों, स्टार्ट-अप और शैक्षणिक संस्थानों ने कई मौकों पर चिंता जताई है।
हालांकि, सरकार इसे पर्याप्त बताती है। सरकार ने निजी उद्योग की आशंकाओं को भी दूर करने का प्रयास करते हुए कहा है कि सरकार इनके लिए बिक्री की गारंटी को बढ़ाने के साथ ही सोर्स उपकरणों को भी विस्तार देगी। इस नीति के आने के बाद सरकार की अधिग्रहण की योजना में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ी है।
अंतरराष्ट्रीय मानदंड
दुनिया भर में प्रमुख सैन्य बजट वाले देशों के मुकाबले में भारत के अनुसंधान और विकास (आर एंड डी) बजट को कम मानते हैं रक्षा विशेषज्ञ। भारत की स्थिति को लेकर चीन से तुलना की जा रही है। वर्ष 2017 और 2019 के बीच चीन ने अपने रक्षा बजट का लगभग नौ से 10 फीसद रक्षा अनुसंधान एवं विकास पर खर्च किया है।
हाल ही में स्टाकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट की वार्षिक रिपोर्ट भी सामने आई है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत सैन्य क्षेत्र में सबसे ज्यादा खर्च करने वाला दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश हैं। अमेरिका इस सूची में पहले नंबर पर है और चीन दूसरे नंबर पर। सिपरी की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत ने साल 2019 में डिफेंस क्षेत्र में 71 बिलियन डालर का खर्च किया था, जो साल 2018 के मुकाबले 6.9 फीसद ज्यादा है।
वर्ष 2019 में चीन ने रक्षा में 261 बिलियन डालर खर्च किया था, और अमेरिका ने 732 बिलियन डालर खर्च किया था। अभी तक भारत सैन्य उत्पादों की सबसे ज्यादा खरीदारी रूस से करता है। जहां तक भारत का सवाल है, साल 2022-23 के मौजूदा रक्षा बजट में अनुसंधान एवं विकास पर आबंटन कुल रक्षा बजट के दो फीसद से भी कम है, जो और भी अधिक अंतर की ओर इशारा करते हैं।
रक्षा अनुसंधान एवं विकास के लिए ज्यादा बजट सहायता नहीं होने की स्थिति में सरकार और रक्षा मंत्रालय अब अन्य विकल्पों पर विचार कर रहे हैं। वर्ष 2020 झ्र 21 में लोकसभा की स्थायी समिति की रिपोर्ट में रक्षा मंत्रालय ने एक बार फिर ज्यादा तकनीक हासिल करने पर जोर दिया, तब साल 2000 में भाजपा सरकार ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) के लिए नया रास्ता अपनाया और इसे बढ़ावा दिया।
अब उम्मीद की जा रही है कि रक्षा अनुसंधान एवं विकास के लिए जो बजटीय राशि की कम होगी, उसकी भरपाई हो सकेगी। इससे कैसे फायदा होगा यह अभी साफ नहीं है और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को 49 फीसद से बढ़ाकर 74 फीसद करने के फैसले से कितना लाभ होगा इसे समझने में भी समय लग सकता है।
नीति और लाइसेंस
कई उपकरण जो भारत में तैयार हो रहे हैं, वो लाइसेंस के आधार पर यहां तैयार किए जा रहे हैं। लाइसेंस के आधार पर बनने का मतलब ये कि सैन्य उपकरण बनाने का लाइसेंस विदेश कंपनी का है, और उस विदेशी कंपनी ने भारत के साथ करार किया है जिस वजह से भारत में ये उत्पाद बना पा रहे हैं। सरकार की नीति में यह स्पष्ट नहीं है कि लाइसेंस के आधार पर बनने वाले उपकरणों को भी आत्म-निर्भर माना जाएगा या नहीं।
जमीनी हकीकत
भारत में आज भी जो रक्षा उपकरण बन रहे हैं, उनमें से कई के पुर्जे विदेशों से बन कर ही आते हैं। कई उपकरण जो भारत में तैयार हो रहे हैं, वो लाइसेंस के आधार पर यहां तैयार किए जा रहे हैं। लाइसेंस के आधार पर बनने का मतलब ये कि सैन्य उपकरण बनाने का लाइसेंस विदेश कंपनी का है, और उस विदेशी कंपनी ने भारत के साथ करार किया है जिस वजह से भारत में ये उत्पाद बना पा रहे हैं।
हल्के लड़ाकू विमानों के इंजन और कई दूसरे पुर्जे भारत विदेशों से आयात करता है और फिर यहां बनाता है। 37 साल में उसका आधारभूत माडल ही भारत में तैयार हो सका है। मार्क एक और मार्क एक ए का प्रोटो टाइप अभी तक भारत में विकसित नहीं हो सका है। उसे बनने में चार से पांच साल और लगेंगे। ऐसी ही कहानी हल्के लड़ाकू हेलिकाप्टर की है।
क्या कहते हैं जानकार
रक्षा क्षेत्र में पूंजी लगाने पर मुनाफे में काफी वक्त लगता है। इस क्षेत्र में छोटे बजट से शुरुआत नहीं की जा सकती। इनमें निवेश भी ज्यादा करना होता है। बाहर की कंपनी किसी भी समय पर हमसे बेहतर उपकरण बनाती थी, इसलिए हम प्रतिस्पर्धा में उनसे पीछे छूट जाते थे। सरकार के नई नीति से निवेशकों को हौसला मिल रहा है।
- अवनीश पटनायक, सोसाइटी आफ इंडियन डिफेंस मैनुफैक्चरर्स (सीआइआइ)
जब तक विदेशी कंपनियों का रक्षा सौदों में हस्तक्षेप रहेगा, तब तक रक्षा उपकरणों में आत्म निर्भरता का नारा सफल नहीं हो सकता। इसके लिए गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा। दूसरे, कभी-कभी बड़े पैमाने पर हथियार प्रणालियों के घरेलू निर्माण की अनुमति आर्थिक कारणों से नहीं मिलती है। ऐसे में आपको आयात करना ही पड़ता है।
- लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) अशोक मेहता, रक्षा विशेषज्ञ