जयप्रकाश त्रिपाठी

पुरुषों की तुलना में भारत की सुशिक्षित महिलाओं के तेजी से नौकरी छोड़ने को लेकर एक रिपोर्ट बताती है कि खासकर यौन हिंसा के जोखिम के मामले में हम महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देशों में शुमार हैं। लैंगिक असमानता वाला पितृसत्तात्मक समाज चाहता है कि महिलाओं का मुख्य काम घर की चारदीवारी के भीतर रहे। रसोई, बच्चों की देखभाल, कामचलाऊ शिक्षा आदि ऐसे ही कारक हैं। घर से बाहर अक्सर महिलाओं को हिंसा का भी सामना करना पड़ता है, जिससे वे नौकरियों के प्रति हतोत्साहित हो रही हैं।

भारतीय पितृसत्ता समाज पर इतनी जटिल जकड़ बनाए हुए है कि पहिया उल्टा घूम रहा है। वर्ष 2005 में जो महिला कार्यबल 27 फीसद था, अब गिरकर 23 फीसद रह गया है। सर्वेक्षण बताता है कि महिला कार्यबल की हिस्सेदारी के मामले में, 131 देशों की सूची में भारत 120वें स्थान पर खिसक गया है। ज्यादातर वे महिलाएं नौकरियां छोड़ रही हैं, जो मध्यम स्तरीय प्रबंधन पदों पर हैं।

ताजा सर्वेक्षणों में इसकी कुछ एक बुनियादी, और कई नई वजहें सामने आ रही हैं। उनमें सबसे प्रमुख है, देश में कार्यकुशल पुरुषों और सुयोग्य कामकाजी महिलाओं का स्तर एक समान होने के बावजूद महिलाओं को अपेक्षया कम वैतनिक प्रोन्नति-पदोन्नति के अवसर मिल पा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र लैंगिक अंतर मिटाते हुए अर्थव्यवस्था में महिलाओं की सशक्त भागीदारी पर जोर देता है।

इससे आर्थिक विविधीकरण और आय समानता को तेजी से बढ़ावा मिलता है। वैश्विक स्तर पर, 2.7 अरब से अधिक महिलाएं कानूनी रूप से पुरुषों के समान नौकरियों के चुनाव से बाहर हैं। ज्यादातर देशों में आज भी महिलाओं को विशिष्ट नौकरियों में काम करने से रोकने वाले कानून हैं। ऐसे 59 देशों में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न पर कोई कानून नहीं है। विश्व स्तर पर, महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम वेतन दिया जाता है। आज भी ज्यादातर महिलाएं अवैतनिक देखभाल और घरेलू काम के लिए अनुपातहीन जिम्मेदारियां वहन कर रही हैं।

अनुमानित तौर पर, यदि महिलाओं के बेगार कार्यों का वैतनिक मूल्यांकन किया जाए तो वह सकल घरेलू उत्पाद का 10 से 39 फीसद तक हो सकता है। लगभग 40 फीसद कामकाजी महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा तक पहुंच नहीं है। दुनिया भर में केवल 58 फीसद महिलाओं की बैंकों, वित्तीय संस्थानों तक पहुंच है। कामकाजी दुनिया में हिंसा और उत्पीड़न महिलाओं को उम्र, स्थान, आय या सामाजिक स्थिति की परवाह किए बिना प्रभावित करता है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया के 64 देशों की सभी महिलाएं दैनिक रूप से कुल 1640 करोड़ घंटे बिना किसी वेतन के काम करती हैं।

दुनिया के 25.8 करोड़ प्रवासियों में से लगभग पचास फीसद कामकाजी महिलाएं हैं, जो अपने देशों से बाहर रहती हैं। हालांकि ज्यादातर प्रवासी महिलाएं अत्यधिक कुशल और सुशिक्षित हैं, फिर भी उन्हें विदेशी श्रम बाजारों तक पहुंचने में अन्य की तुलना में चुनौतियों का ज्यादा सामना करना पड़ रहा है। प्रवासियों के लिए रोजगार प्रतिबंधों के साथ-साथ लिंग आधारित श्रम बाजारों में प्रचलित डी-स्किलिंग और गंतव्य देशों में प्रवासी महिलाओं से जुड़ी व्यापक रूढ़िवादिता, उनकी नौकरी की संभावनाओं को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रही है।

पुरुषों की तुलना में भारत की सुशिक्षित महिलाओं के तेजी से नौकरी छोड़ने को लेकर एक रिपोर्ट बताती है कि खासकर यौन हिंसा के जोखिम के मामले में हम महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देशों में शुमार हैं। लैंगिक असमानता वाला पितृसत्तात्मक समाज चाहता है कि महिलाओं का मुख्य काम घर की चारदीवारी के भीतर रहे। रसोई, बच्चों की देखभाल, कामचलाऊ शिक्षा आदि ऐसे ही कारक हैं। घर से बाहर अक्सर महिलाओं को हिंसा का भी सामना करना पड़ता है, जिससे वे नौकरियों के प्रति हतोत्साहित हो रही हैं।

अर्थशास्त्रियों का कहना है कि भारत के कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी में गिरावट चिंता का कारण है और यह अर्थव्यवस्था के संकट से जुड़ा है। देश में ऐसे लोगों की संख्या सर्वाधिक है, जिनकी उम्र काम करने वाली है, इसलिए भारत को महिलाओं के लिए ज्यादा नौकरियां सृजित करने और बेहतर रोजगार की स्थितियां बनाने के लिए दोतरफा रणनीति बनानी होगी। तमाम सर्वे इसकी तस्दीक करते हैं कि घरेलू दबावों के कारण नौकरीपेशा महिलाएं हर समय मानसिक और शारीरिक रूप से खुद को थका हुआ महसूस करती हैं।

भारत में पारंपरिक सह-निवास भी महिलाओं की रोजगार दर को प्रभावित कर रहा है। उनकी घरेलू जिम्मेदारियों का बोझ भारी होता जा रहा है। ससुराल का सह-निवास महिलाओं के रोजगार को प्रभावित करता है। सह-निवास से महिलाओं की अतिरिक्त घरेलू जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं। रूढ़िवादी लिंग-आधारित मानदंडों के कारण पारिवारिक पारंपरिक अधिकार और संपत्ति के स्वामित्व के मामले में वे दोयम हो जाती हैं। ज्यादातर रूढ़िवादी परिजन महिलाओं के रोजगार के पक्ष में नहीं होते हैं।

पिछले एक दशक में 1.96 करोड़ महिलाओं ने नौकरियां छोड़ी या खोई हैं। इंजीनियरिंग और मेडिकल कार्यक्षेत्रों में महिलाओं का अच्छा-खासा प्रतिनिधित्व है, जहां वे क्रमश: 30 से 45 फीसद तक हैं। आइआइटी में प्रवेश के समय शीर्ष रैंक अर्हता में महिलाएं केवल 20.8 फीसद होती हैं। आइआइटी में वह 8-9 फीसद ही रह जाती हैं। दरअसल, ज्यादातर माता-पिता औसतन बेटियों के लिए अत्यधिक प्रतिस्पर्धी प्रकृति की प्रवेश परीक्षाओं की महंगी कोचिंग पर पैसा और समय खर्च करने के पक्ष में नहीं होते हैं।

सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकोनमी (सीएमआइई, मुंबई) की रिपोर्ट के हवाले से ब्लूमबर्ग का कहना है कि भारत में पिछले पांच वर्षों में दो करोड़ महिलाएं नौकरियों से अलग हुई हैं। नौकरियां छोड़ने वाली महिलाओं की बढ़ती संख्या देश की आर्थिक विकास दर को लेकर एक बड़े खतरे का संकेत दे रही है। वर्ष 2021 में भारत की औसत मासिक महिला रोजगार दर 2020 की तुलना में 4.9 फीसद अधिक थी, लेकिन 2019 की तुलना में 6.4 फीसद कम।

एक आवधिक श्रमबल सर्वे के मुताबिक भारत में करीब 66 फीसद से ज्यादा युवा महिलाएं घरेलू जिम्मेदारियां संभाल रही हैं। आज भी भारतीय समाज में आम महिला के लिए शादी और बच्चे पालना एक सर्वज्ञात मानक बना हुआ है। उद्योग और सेवा क्षेत्र में कामकाजी महिलाओं का अनुपात सबसे ज्यादा गुजरात और तमिलनाडु में पाया गया है। कर्नाटक, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में भी कृषि से इतर क्षेत्रों में विवाहित और अविवाहित युवा महिलाओं के अनुपात में बड़ा अंतर देखा गया है।

वैश्विक स्तर पर लगभग एक तिहाई महिलाओं का मूल रोजगार कृषि है, जिसमें वानिकी और मछली पकड़ना भी शामिल है, लेकिन 12.8 फीसद महिला किसानों का ही भूसंपत्तियों पर स्वामित्व है। भारत में कुल कामकाजी महिलाओं में से करीब 63 फीसद खेती-बाड़ी के काम में लगी हुई हैं। केंद्रीय श्रम मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में हर क्षेत्र के मुकाबले कृषि क्षेत्र में सबसे ज्यादा महिलाएं कार्यरत हैं, जबकि विनिर्माण क्षेत्र में उनकी अनुमानित भागीदारी 11.2 फीसद है। सबसे ज्यादा केरल में युवा विवाहित महिलाएं बेरोजगार हैं। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में महिलाओं के नौकरियां छोड़ने की दर बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है। ऐसी ज्यादातर महिलाएं फिर दुबारा नौकरी पर नहीं लौट रही हैं।

वार्षिक आवधिक श्रमबल सर्वे (पीएलएफएस) के मुताबिक, 2021-22 में विनिर्माण उद्योग में कामकाजी महिलाओं का अनुमानित फीसद वितरण 11.2 फीसद पाया गया है। कंसल्टेंसी फर्म ‘मैकिंजे’ की एक रिपोर्ट तो यहां तक दावा करती है कि अगर देश में महिलाओं के साथ भेदभाव खत्म हो जाए तो वर्ष 2025 तक देश की जीडीपी में 46 लाख करोड़ रुपए के अतिरिक्त इजाफे के साथ विकास दर 1.4 फीसद अतिरिक्त उछाल ले सकती है।

इस योगदान के लिए कम से कम 6.8 करोड़ और कामकाजी महिलाओं की जरूरत पड़ सकती है। तब कामकाजी लोगों में 41 फीसद महिलाएं हो सकती हैं। जबकि देश में कार्यबल की लैंगिक हकीकत उल्टी दिशा में भाग रही है। बड़ी संख्या में महिलाओं का नौकरियां से मोहभंग होना इसका ताजा सबूत है।