अलबत्ता यह जरूर है कि साहित्य की जिस श्रेणी की शिनाख्त आज हम लुगदी लेखन के तौर पर करते हैं, वह संवेदना की दुनिया का आसान या चलताऊ प्रस्तुतिकरण भर नहीं है। दरअसल, गंभीरता और श्रेष्ठता का आधिक्य जब लेखन को कोरी बौद्धिकता पर ले आता है तो लेखक और पाठक की दुनिया काफी छोटी हो जाती है। पर इस छोटी दुनिया के बाहर लेखन का आस्वादन खत्म नहीं होता बल्कि इसके लिए एक अलग तरह का रचना जगत अपना सम्मोहन रचता है। दिलचस्प यह कि इस तरह के साहित्य में भी हमारा देशकाल उतना ही शामिल होता है, जितना परिनिष्ठ साहित्य में।
देवकीनंदन खत्री की रचनाओं पर डॉ. प्रदीप सक्सेना का एक महत्त्वपूर्ण शोध अध्ययन है। सक्सेना कहते हैं कि खत्री अपने कथात्मक ताने-बाने और विन्यास के माध्यम से औपनिवेशिक सत्ता के विरोध का नाट्य रचते हैं। यही बड़ी और विलक्षण बात है। राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में और स्वाधीनता के कुछ वर्ष बाद तक भारतीय समाज में लुगदी साहित्य का दायरा बहुत संकुचित था।
इसे पसंद करने वाला आम शहरी मध्यवर्ग का मौजूदा विकास आजादी के दो-तीन दशक बाद एक नई सामाजिक शिनाख्त के साथ सामने आया। इससे भी अहम बात यह थी कि राष्ट्रीय आंदोलन ने समाज में जो सांस्कृतिक-आत्मिक गतिशीलता का माहौल पैदा किया था, उसमें अच्छे साहित्य की पहुंच समाज के आम पढ़े-लिखे लोगों तक हो रही थी।
देश के दूरदराज के इलाकों तक कुछ साहित्य प्रेमी रियासतदारों-जमींदारों, कुछ व्यापारियों और कुछ शिक्षित नागरिकों (शिक्षक, वकील, डॉक्टर आदि) की पहल पर पुस्तकालय खुल गए थे और पत्र-पत्रिकाएं-पुस्तकों तक लोगों की पहुंच बनने लगी थी। आज देश में जिस पुस्तकालय संस्कृति के खोने-मिटने का हम रोना रोते हैं, उसका गांव-अंचल तक विकास उसी दौर में हुआ था।
हिंदी नवजागरण के अध्येता इस बात को अलग से रेखांकित भी करते हैं। उस दौर में खत्री और गहमरी ही नहीं, प्रेमचंद, सुदर्शन, जैनेंद्र आदि का साहित्य भी लोकप्रिय साहित्य की तरह पढ़ा जाने लगा था। बंकिम चंद्र, रवींद्रनाथ ठाकुर, शरतचंद्र आदि भी अनूदित होकर हिंदी पाठकों तक पहुंचने लगे थे।
पचास और साठ का दशक सरकार की नई नीतियों के साथ सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के साथ शिक्षित मध्यवर्ग के फैलाव का दौर था। यह समय था जब राष्ट्रीय आंदोलन से समाज में पैदा हुई गतिशीलता के साथ नैतिकता छीजती जा रही थी। मध्यवर्ग शिक्षित तो था, लेकिन बस नौकरी करना और परिवार चलाना उसका जीवन-लक्ष्य था। कला-साहित्य-संस्कृति से उसका जुड़ाव पहले की तरह नहीं रह गया था।
आजादी के पहले के दिनों के मुकाबले, इस दौर का मध्यवर्ग कहीं अधिक अराजनीतिक था। यह एक आत्मतुष्ट, कूपमंडूक और कुसंस्कृत शिक्षित समुदाय था। 1960 और 1970 के दशकों में गुलशन नंदा लुगदी साहित्य या फुटपाथी साहित्य की दुनिया के बेताज बादशाह रहे। नंदा के बाद रानू, राजवंश आदि इस दौर में लुगदी साहित्य के शीर्षस्थ रचनाकार रहे। आज बाजार का दौर है। रचनात्मकता की सूई बाजार अपनी तरह घुमा रहा है। लेखक और पाठक के जुड़ाव का आधार सामाजिक या सांस्कृतिक की जगह महज व्यापारिक रह गया है।

