सुप्रीम कोर्ट ने सशर्त उम्रकैद की सजा दिए जाने की आलोचना करते हुए कहा है कि ऐसे दोषियों के लिए मौत की सजा बेहतर होगी। प्रधान न्यायाधीश एचएल दत्तू की अध्यक्षता वाले संविधान पीठ ने कहा, हम सभी उम्मीदों में जीते हैं, अगर यही प्रचलित स्थिति है तो ऐसे कैदियों के लिए कोई आस नहीं है। किसी व्यक्ति को पूरी उम्र जेल में रखने का क्या मतलब है। उसे मौत की सजा दे दी जाए। यह बेहतर होगा।
राजीव गांधी हत्याकांड के सात दोषियों की सजा माफ कर उन्हें रिहा करने के तमिलनाडु सरकार के फैसले के खिलाफ केंद्र की याचिका पर सुनवाई के दौरान संविधान पीठ ने यह टिप्पणी की। इस मामले में न्यायालय ने आज राज्यों को चुनिंदा किस्म के मामलों में सजा माफी के अधिकार के इस्तेमाल की अनुमति प्रदान की।
इस मामले की सुनवाई के दौरान अदालत ने केंद्र से जानना चाहा कि किसी कैदी को मौत होने तक उम्रकैद की सजा सुनाने के पीछे क्या तर्क है। संविधान पीठ ने कहा कि हम सुधारात्मक दंड प्रणाली का पालन करते हैं और अगर माफी की कोई उम्मीद नहीं हो तो उम्रकैद की सजा भुगत रहा कोई कैदी खुद में सुधार की कोशिश क्यों करेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने उम्रकैद की सजा पाए कैदियों की सजा माफ कर उन्हें रिहा करने के अधिकार के इस्तेमाल की राज्य सरकारों को इस शर्त के साथ अनुमति प्रदान कर दी कि यह उन मामलों में लागू नहीं होगा जिनकी जांच सीबीआइ जैसी केंद्रीय एजंसियों ने की है और जिन्हें टाडा जैसे केंद्रीय कानून के तहत सजा मिली है। राज्य सरकारों के इस अधिकार पर एक साल पहले लगाई गई रोक हटाते हुए प्रधान न्यायाधीश एचएल दत्तू की अध्यक्षता वाले पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा कि यह छूट उन मामलों में भी लागू नहीं होगी जहां दोषी को बलात्कार के यौन अपराधों और हत्या के अपराध में उम्रकैद की सजा दी गई है।
संविधान पीठ ने स्पष्ट किया कि यह अंतरिम आदेश राजीव गांधी हत्याकांड पर लागू नहीं होगा जिसमें सात दोषियों की सजा माफ कर उन्हें रिहा करने के तमिलनाडु सरकार के फैसले के खिलाफ केंद्र सरकार की याचिका पर विचार हो रहा है। संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति एफएमआई कलीफुल्ला, न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्र घोष, न्यायमूर्ति अभय मनोहर सप्रे और न्यायमूर्ति उदय यू ललित शामिल हैं।
संविधान पीठ ने कहा- हम यह स्पष्ट करते हैं कि हमारा आदेश इस मामले (राजीव गांधी हत्याकांड प्रकरण) में लागू नहीं होगा। हमारा अंतरिम आदेश उस अंतिम आदेश के दायरे में होगा जो हम इस मामले में पारित करेंगे। शीर्ष अदालत ने अपने नौ जुलाई 2014 के आदेश में संशोधन किया। इसी आदेश के माध्यम से अदालत ने तमिलनाडु सरकार के फैसले से उठे विवाद के आलोक में सभी राज्यों को उम्रकैद की सजा पाए कैदियों की सजा माफ कर उन्हें जेल से रिहा करने के अधिकार पर रोक लगाई थी।
राजीव गांधी हत्याकांड में वी श्रीहरन उर्फ मुरुगन, संतन और अरिवू की मौत की सजा को उम्रकैद में तब्दील करने के अदालत के 18 फरवरी 2014 के निर्णय के बाद तमिलनाडु सरकार ने इनकी सजा माफ करके इन्हें रिहा करने का फैसला किया था। शीर्ष अदालत ने इन तीनों के साथ ही चार अन्य दोषियों नलिनी, राबर्ट पायस, जयकुमार और रविचंद्रन को रिहा करने के तमिलनाडु सरकार के 19 फरवरी के फैसले पर 20 फरवरी को यह कहते हुए रोक लगा दी थी कि इसमें प्रक्रियात्मक खामियां थीं।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 432 और 433 के अंतर्गत उम्रकैद की सजा पाए कैदियों की सजा माफ करके उन्हें रिहा करने के राज्यों के बहाल किए गए अधिकार का सिर्फ उन्हीं मामलों में राहत देने के लिए इस्तेमाल हो सकता है जिनमें ऐसे कैदी 14 या इससे अधिक साल जेल में बिता चुके हैं। इन शर्तों को स्पष्ट करते हुए अदालत ने कहा कि इस अधिकार का उन मामलों में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता जिनमें कैद की सजा की अवधि जीवन समाप्त होने तक जारी रखने के बारे में स्पष्ट रूप से कहा गया हो।
संविधान पीठ ने यह भी कहा कि उन मामलों में भी माफी पर विचार नहीं किया जा सकता जिनमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ऐसे कैदी को 20 से 25 साल तक या जितनी अवधि तक जेल में रखने का स्पष्ट आदेश हो। राज्य माफी देने के अधिकार का इस्तेमाल उन मामलों में भी नहीं कर सकते जिनकी जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो जैसी किसी केंद्रीय जांच एजंसी ने की हो।
संविधान पीठ ने राज्य सरकारों द्वारा सजा माफ करने के अधिकार में संशोधन करते हुए कहा कि यह अधिकार उन कैदियों पर लागू नहीं होंगे जिन्हें टाडा जैसे केंद्रीय कानून के तहत और बलात्कार और हत्या जैसे घृणित अपराध के लिए उम्रकैद की सजा मिली हो। ऐसे सभी मामलों में जहां राज्यों को कैदियों को रिहा करने की अनुमति प्रदान की गई है, राष्ट्रपति और राज्यपाल भी माफी देने या दया के मामलों में अपने सांविधानिक अधिकार का इस्तेमाल करेंगे।
अदालत ने कहा कि यह अंतरिम आदेश उन मामलों में लागू होगा जहां सजा में कटौती के लिए कोई अर्जी नहीं दी गई है या राज्य सरकार ने स्वत: ही इस पर विचार नहीं किया है। शीर्ष अदालत ने अदालत के नोटिस के जवाब में कुछ राज्यों के जवाब पर विचार के लिए नौ जुलाई 2014 के आदेश में संशोधन किया। संविधान पीठ इस सवाल पर विचार कर रहा है कि क्या सीबीआइ जैसी केंद्रीय एजंसी द्वारा जांच और अभियोजन वाले मामलों में कैदियों को माफी देने के लिए केंद्र सरकार की स्वीकृति आवश्यक है।
केंद्र सरकार का तर्क है कि सीबीआइ सरीखी केंद्रीय जांच एजंसी द्वारा जांच और अभियोजन वाले मामलों में माफी देने का राज्य सरकारों को अधिकार नहीं है। केंद्र का यह भी कहना है कि पीड़ितों के अधिकारों पर भी गौर करने की आवश्यकता है।
संविधान पीठ ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि वह उसके पास भेजे गए सवालों से आगे गौर नहीं करेगी। शीर्ष अदालत ने इस मामले को संविधान पीठ के पास यह कहते हुए भेजा था कि यह मसला पहली बार अदालत के समक्ष उठा है और इस पर सुविचारित व्यवस्था की आवश्यकता है।