मौत की सजा सुनाए गए तीन चौथाई से अधिक दोषी आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग के हैं। दिल्ली राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के ‘सेंटर फॉर डेथ पेनल्टी’ की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि मौत की सजा सुनाए गए 80 फीसद से अधिक कैदियों को जेलों में ‘अमानवीय और अत्यधिक शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है।’

इस अध्ययन में भारत की जेलों में बंद मौत की सजा सुनाए गए कैदियों के सामाजिक आर्थिक ब्योरे का दस्तावेजीकरण किया गया है। इसमें कहा गया है कि करीब तीन चौथाई ऐसे कैदी आर्थिक रूप से अत्यंत कमजोर होते हैंं और इनमें से ज्यादातर तो अपने परिवार के प्रमुख या एकमात्र ऐसे सदस्य होते हैं जो आजीविका चलाते हैं। मौत की सजा का इंतजार कर रहे 76 फीसद दोषी सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग के और धार्मिक अल्पसंख्यक हैं। रिपोर्ट में यह भी संकेत दिया गया है कि देश में 12 महिला कैदियों को भी मृत्युदंड की सजा सुनाई गई है और ये महिला कैदी भी सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग में आती हैं।

अध्ययन में 270 कैदियों में से 216 (करीब 80 फीसद) ने जेल में हिरासत में मिली प्रताड़ना के बारे में बताया जो कि सर्वाधिक अमानवीय, मानव गरिमा के प्रतिकूल और चरम मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना थी। इन कैदियों की त्वचा सिगरेट से जलाई गई, उनकी उंगलियों के नाखूनों में सुइयां घुसाई गईं, निर्वस्त्र रखा गया, गुप्तांगों में लोहे की छड़ें या शीशे की बोतलें डाली गईं, पेशाब पीने को बाध्य किया गया, हीटर पर पेशाब करने को बाध्य किया गया, तारों से बांधा गया और बुरी तरह पीटा गया। प्रताड़ना के और भी कई निर्मम तरीकों का इसमें जिक्र किया गया।

अध्ययन में यह भी पाया गया कि जिन कैदियों को मौत की सजा सुनाई गई, उनमें से 23 फीसद तो कभी स्कूल गए ही नहीं और 61.6 फीसद ने उच्चतर माध्यमिक तक की शिक्षा भी पूरी नहीं की। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर ने रिपोर्ट के संबंध में पैनल के एक विचारविमर्श के दौरान कहा, ‘अगर आरोपी अशिक्षित है तो उसके बचाव पर इसका प्रभाव पड़ता है।’ इस रिपोर्ट में उन 385 कैदियों का जिक्र है जो देश की विभिन्न जेलों में बंद हैं और जिन्हें मौत की सजा सुनाई गई है। उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक 79 कैदी ऐसे हैं जिन्हें मौत की सजा सुनाई गई है।