दामोदर घाटी परियोजना के विस्थापितों को साठ साल बाद भी न उनकी जमीन और घरों का मुआवजा मिल पाया है और न पुनर्वास के नाते नौकरी। पश्चिम बंगाल और झारखंड के चार जिलों के इन विस्थापितों में ज्यादातर आदिवासी हैं। कुल 240 गांवों की 38 हजार एकड़ जमीन और पांच हजार घर केंद्र सरकार की इस बिजली परियोजना ने 1954 में लील लिए थे। पर विस्थापितों को अंतहीन संघर्ष के बावजूद इंसाफ कोई सरकार नहीं दे पाई। विस्थापितों की पीड़ा को महसूस करना हो तो धनबाद जिले के सीमापाथर गांव जाना चाहिए। इस अकेले गांव के 1670 घरों का अधिग्रहण दामोदर घाटी परियोजना के लिए हुआ था। तब सरकार ने भरोसा दिया था कि हर विस्थापित का पुनर्वास होगा और उसे उसके मकान व जमीन का पर्याप्त मुआवजा भी मिलेगा। पर यह भरोसा धोखा साबित हुआ। विस्थापितों को इंसाफ दिलाने की पिछले तीन दशक से लड़ाई लड़ रहे घटवार आदिवासी महासभा के संयोजक रामाश्रय सिंह की यही पीड़ा है। उन्हें अफसोस है कि अपने हक के लिए विस्थापितों की तीसरी पीढ़ी सड़क पर आ गई पर किसी सरकार का दिल नहीं पसीजा।

बकौल रामाश्रय सिंह दामोदर घाटी परियोजना केंद्र सरकार के ऊर्जा विभाग के अधीन है। परियोजना में शुरू से ही नौकरशाही का भ्रष्टाचार हावी रहा है। तभी तो महज पांच सौ असली विस्थापितों को ही नौकरी दी गई जबकि विस्थापित परिवारों की संख्या करीब बारह हजार थी। परियोजना के अफसर कहते हैं कि उन्होंने नौ हजार विस्थापितों को नौकरी देकर उनका पुनर्वास कर दिया। रामाश्रय सिंह का आरोप है कि घूसखोरी के चक्कर में चहेतों को फर्जी ढंग से विस्थापित बता कर नौकरी पर रख लिया गया जबकि असली विस्थापित मजदूरी ही करते रह गए।

मुआवजे और पुनर्वास के सरकारी गोरखधंधे की इस प्रताड़ना के शिकार मैथन और पंचेत के 240 गांवों के विस्थापित धनबाद और कोलकाता से लेकर रांची और दिल्ली तक गुहार लगा चुके हैं। इंसाफ के लिए लड़ाई का उनका माद्दा अब चुकने लगा है। नरेंद्र मोदी सरकार से उन्हें इंसाफ की उम्मीद थी। पर भ्रष्ट नौकरशाही का वर्चस्व देखिए कि यह सरकार भी अभी तक निगम से तीन सवालों का विस्थापितों को जवाब नहीं दिला पाई। रामाश्रय सिंह चाहते हैं कि निगम उन लोगों की सूची उजागर करे, जिन्हें विस्थापित बता कर पुनर्वास के नाम पर नौकरी दी गई। साथ ही उन लोगों की सूची भी जारी करे जिनकी जमीन और मकानों का परियोजना में अधिग्रहण हुआ था।

तभी पुनर्वास और मुआवजे की सच्चाई सामने आ सकेगी:

रामाश्रय सिंह इस गुलगपाड़े की सीबीआइ जांच चाहते हैं। केंद्र सरकार यह कह कर पीछा छुड़ा रही है कि जब तक झारखंड सरकार सिफारिश नहीं करेगी, वह सीबीआइ जांच नहीं करा सकती। भाजपा जब विपक्ष में थी तो सीबीआइ जांच का समर्थन करती थी। अब सत्ता में है तो जांच की सिफारिश से कतरा रही है। वजह साफ है कि दामोदर घाटी निगम के जवाबदेह अफसर अपनी गर्दन फंसने के डर से न केवल साक्ष्य छिपा रहे हैं बल्कि जांच को लटका कर इंसाफ में बाधा भी डाल रहे हैं।