आवासीय समस्या का आलम यह है कि अब शहरों के पास रिहाइश के लिए नाममात्र को जमीन बची है। जितनी जमीनें वहां हैं, वे या तो निजी बिल्डरों के कब्जे में हैं या फिर किसी न किसी झंझट में फंसी हुई हैं। इसका अंजाम यह निकला है कि आज देश में 2.7 करोड़ लोगों के पास रहने को घर नहीं हैं और वे झोपड़-पट्टियों में गुजर-बसर कर रहे हैं। आखिर मकानों की यह किल्लत दूर हो तो आखिर कैसे।

इसका एक उपाय है, खाली पड़े मकानों को किराए पर उपलब्ध कराना और सिंगापुर तथा हांगकांग की तर्ज पर किराए के लिए ही नए सरकारी मकान बनाना। ऐसी योजना के विचार के पीछे यह अनुमान काम कर रहा है कि बीते एक दशक की अवधि में ही देश में दो करोड़ से ज्यादा नए मकान बने हैं, लेकिन निवेश के मकसद से बनाए गए ये ज्यादातर मकान खाली पड़े हैं। आंकड़ा यह है कि तकरीबन एक करोड़ दस लाख मकानों को निवेश के उद्देश्य से ही बनाया गया है, इसीलिए वे किसी को रहने के लिए नहीं दिए गए हैं। खाली पड़े मकानों से आवास समस्या काफी हद तक दूर की जा सकती है।

पर इस राह में सबसे बड़ी अड़चन है कि मकान मालिकों को लगता है कि जरूरत पड़ने पर अगर किराएदार ने मकान खाली नहीं किया तो उन्हें कानूनी झमेले में पडना होगा। इस अहम डर की स्थिति में रहे-बचे मकानों का किराया बढ़ती मांग के हिसाब से आसमान छूने लगता है। यह समस्या हमारे देश में रेंटल हाउसिंग की कोई स्पष्ट नीति नहीं होने के कारण पैदा हुई है। इसके बाहर भी आवास नीति में कैसे-कैसे झोल अब तक कायम रहे हैं, यह हिसाब-किताब इससे समझ में आता है कि आज की तारीख में किसी भी शहर में एक औसत मकान या फ्लैट की कीमत चालीस-पचास लाख रुपए को पार कर गई है।

ध्यान रहे कि किसी शहर का काम सिर्फ बाबुओं और निजी कंपनियों में काम करने वाले मैनेजरों के बल पर नहीं चलता। शहरों को घर में काम करने वाली आया-महरी से लेकर रेहड़ी-पटरी वाले और आठ-दस हजार महीने पर काम करने वाले सुरक्षा गार्ड भी चाहिए। लेकिन ये सारे शहर में तभी रह सकते हैं, जब दो-ढाई हजार रुपए में उनके रहने का इंतजाम हो सके। अफसोस कि आज किसी भी आवासीय योजना में ऐसे लोगों के लिए कोई खास जगह नहीं बची है। शहरों की कामकाजी आबादी अगर इसी तरह मकान के मामले में बेदखल होती रही, तो देश के ज्यादातर शहर आने वाले वक्त में घुटने के बल चलने के काबिल भी नहीं रह जाएंगे।