कोरोना वायरस के चलते देशभर में हुए लॉकडाउन के बाद लोगों को काम धंधे बंद हो गए और प्रवासी मजदूरों और कामगारों को वापस अपने अपने गृहराज्य लौटना पड़ा। हालांकि अपने घर लौटने के बाद भी उनकी मुश्किलें खत्म नहीं हुई हैं क्योंकि बिना काम के यहां भी गुजारा करना मुश्किल है। यही वजह है कि लॉकडाउन के चलते अपने अपने घरों को लौटे कामगार अब वापस लौटने के दिन गिन रहे हैं। बिहार के कटिहार जिले की महेशपुर पंचायत के निवासी मोहम्मद शाबिर का कहना है कि ‘हमारे घर में कुछ मक्का बची हुई है लेकिन बाद में हमें सोचना पड़ेगा कि आगे काम का क्या करना है।’
बिहार के सीमांचल इलाकों में मक्का मुख्य फसल है और यहां के तकरीबन हर घर में इसकी खेती होती है। शाबिर एक मोटर मैकेनिक है और बीते सात सालों से गुरुग्राम में काम करता है। लॉकडाउन के चलते बीते माह महेशपुर के करीब 2000 प्रवासी मजदूरों के साथ शाबिर भी अपने घर लौट आया है।
शाबिर ने बताया कि “मैं मोटरसाइकिल के इंडीकेटर ठीक करता था और मुझे हर माह 7000 रुपए मिलते थे। इनमें से 2000 रुपए मैं अपने घरवालों को भेज देता था। जब मेरे पास पैसे खत्म हो गए तो मैं श्रमिक स्पेशल ट्रेन से घर लौट आया। मेरी नौकरी फिर से कब शुरू होगी इस बारे में कुछ पता नहीं है।”
प्रवासी मजदूरों का कहना है कि यहां खेतीबाड़ी के अलावा कोई काम नहीं है। हमारे पास खेती के लिए जमीन नहीं है इसलिए देर-सबेर हमें वापस लौटना ही पड़ेगा। महेशपुर पंचायत पश्चिम बंगाल के बॉर्डर से मिलती है और कटिहार का रिमोट इलाका है। यहां रहने वाले अधिकतर लोग छोटे किसान हैं और बाकी दिहाड़ी मजदूर या बेरोजगार। महेशपुर की आबादी करीब 15000 है इनमें से 3600 परिवारों के पास ही राशन कार्ड हैं। 90 प्रतिशत लोग कच्चे मकानों में रहते हैं। अधिकतर परिवारों में से एक सदस्य काम के लिए बिहार के बाहर ही जाता है।
कई प्रवासी मजदूर संकट की इस घड़ी में कम पैसों में भी काम करने के लिए तैयार हैं, लेकिन तब भी नौकरी नहीं मिल रही है। लोगों का कहना है कि ‘मनरेगा के तहत 177 रुपए मिलते हैं, जो कि बहुत कम हैं। हम बस संकट टलने का इंतजार कर रहे हैं और सब ठीक होते ही फिर से वापस चले जाएंगे।’