पूर्वोत्तर भारत के तीन राज्यों के ग्रामीण रसोईघरों में पारंपरिक ईंधन के उपयोग से खाना पकाने के तरीकों से होने वाले वायु प्रदूषण के हानिकारक प्रभावों से सांस की बीमारियों सहित अन्य स्वास्थ्य समस्याओं से ज्यादा ग्रस्त हो सकते हैं। इस बात का खुलासा आइआइटी मंडी के शोधकर्त्ताओं ने किया है। शोध में यह भी पता चला कि यह खतरा एलपीजी की अपेक्षा 57 गुणा अधिक है।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मंडी (आइआइटी मंडी) के शोधकर्ताओं ने फ्रांस के इंस्टीट्यूट नेशनल डी रेचेर्चे एट डी सेक्यूरिटे (आइएनआरएस) और भारत के राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला (सीएसआइआर-एनपीएल) के सहयोग से पूर्वोत्तर भारत के तीन राज्यों के ग्रामीण रसोईघरों में पारंपरिक ईंधन के उपयोग से खाना पकाने के तरीकों से होने वाले वायु प्रदूषण के हानिकारक प्रभावों पर एक व्यापक अध्ययन किया है।
आइआइटी मंडी के एक शोध दल, जिसमें पीएचडी शोधकर्ता विजय शर्मा और स्कूल आफ सिविल एंड एनवायरनमेंटल इंजीनियरिंग के सहायक प्रोफेसर सायंतन सरकार और उनके सहयोगियों ने तीन शोध पत्रों की एक श्रृंखला में जलाऊ लकड़ी और मिश्रित बायोमास का उपयोग करके रसोईघरों में खाना पकाने के दौरान उत्पन्न होने वाले हानिकारक उत्सर्जनों की मात्रा और परिणामों का विश्लेषण किया है।
उन्नत प्रगति के बावजूद पूर्वोत्तर भारत (असम, अरुणाचल प्रदेश और मेघालय) में ग्रामीण आबादी के 50 फीसद से अधिक लोग खाना पकाने के लिए अभी भी पारंपरिक ठोस ईंधन जैसे जलाऊ लकड़ी और मिश्रित बायोमास का उपयोग करते हैं, जिससे रसोई की हवा में भारी मात्रा में प्रदूषक रह जाते हैं। हाल ही में किए गए शोध का उद्देश्य एलपीजी-आधारित खाना पकाने की तुलना में बायोमास ईंधन का उपयोग करने से जुड़ी गंभीरता और बीमारी के बोझ का आकलन करना था।
शोध में खुलासा हुआ कि जलाऊ लकड़ी बायोमास ईंधन का उपयोग करने वाले रसोईघरों में हानिकारक एयरोसोल और रसायनों के संपर्क में आना एलपीजी का उपयोग करने वाले रसोईघरों की तुलना में 2 से 19 गुना अधिक था। इसका मतलब है कि इन रसोईघरों में सांस लेने वाली हवा में कहीं ज्यादा हानिकारक पदार्थ मौजूद होते हैं।
इन एयरोसोल में से 29 से 79 फीसद तक सीधे हमारे श्वसन तंत्र में जमा हो जाते हैं, जिससे फेफड़ों को नुकसान पहुंचने का खतरा बढ़ जाता है। जलाऊ लकड़ी और मिश्रित बायोमास ईंधन का उपयोग करने वाले लोगों में एलपीजी उपयोगकर्ताओं की तुलना में 2 से 57 गुना अधिक बीमारी का खतरा पाया गया।
आइआइटी मंडी के स्कूल आफ सिविल एंड एनवायरनमेंटल इंजीनियरिंग के सहायक प्रोफेसर डा सायंतन सरकार ने इस शोध की विशिष्टता के बारे में बताते हुए कहा कि हमारा अध्ययन खाना पकाने से होने वाले उत्सर्जनों के श्वसन तंत्र पर पड़ने वाले प्रभाव का मजबूती से अनुमान लगाने के लिए वास्तविक ग्रामीण रसोईघरों में एयरोसोल के मापन को डोजीमेट्री माडलिंग के साथ जोड़ता है। यह भारत में घर के अंदर खाना पकाने के उत्सर्जन के संपर्क में आने से होने वाली बीमारी के बोझ का अनुमान लगाने का पहला प्रयास है, जिसे खोए हुए संभावित जीवन वर्षों के रूप में मापा गया है।
यह अध्ययन भारतीय संदर्भ में इस तरह के जोखिम के परिणामस्वरूप आक्सीडेटिव तनाव की क्षमता को पहली बार मापता है, और स्वच्छ ईंधन एलपीजी का उपयोग करने वालों की तुलना में बायोमास उपयोगकर्ताओं को होने वाले अतिरिक्त जोखिम को निर्धारित करता है।