यह जिंदगी भी एक अजीब विरोधाभास है। हमारी जिंदगी में कई बार ऐसे मौके आते हैं कि जब हम करना कुछ चाहते हैं लेकिन स्थिति के लिहाज से हमें कुछ और ही करना पड़ जाता है। हम जिंदगी में विरोधाभास को बहुत ही आश्चर्यजनक रूप से देखते हैं लेकिन कटु सत्य यह है कि विरोधाभास हमारे जीवन का हिस्सा है। विरोधाभास हमें जिंदगी का अर्थ समझाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है और नई ऊर्जा भी देता है।
विरोधाभास के बिना जीवन के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। यह विरोधाभास कई स्वरूपों में मौजूद रहता है। विरोधाभास भी दो तरह के होते हैं-एक प्राकृतिक विरोधाभास और दूसरा कृत्रिम विरोधाभास। प्राकृतिक विरोधाभास हमेशा मौजूद रहता है। यह जीवन को सकारात्मक गति प्रदान करता है जबकि कृत्रिम विरोधाभास हम खुद पैदा करते हैं और इससे अपने जीवन को खुद अविश्वसनीय बनाते है। इस तरह कृत्रिम विरोधाभास हमारे जीवन को नकारात्मक गति प्रदान करता है।
प्राकृतिक विरोधाभास को हम चाहकर भी नहीं छोड़ पाते। हम जमीन पर होते हैं लेकिन हमारा मन कल्पना के आकाश में उड़ता रहता है। लेकिन हकीकत इससे कोसों दूर होती है। हममे से ज्यादातर लोग सपने देखते हैं और सपने ही देखते रह जाते हैं। ऐसे सपने देखने के बाद हम फिर अपनी पुरानी दुनिया में होते हैं और एक नया सपना देखने लगते हैं।
दरअसल इस प्रक्रिया में हम किसी भी सपने को गंभीरता से नहीं लेते हैं। सपने देखते समय हमारी भावनाएं हमारे ऊपर हावी होती हैं लेकिन सामने कोई लक्ष्य न होने के कारण भावनाओं का गुब्बारा जल्दी ही फूट जाता है। सपने देखना और सपनों को हकीकत में न बदल पाना ज्यादातर लोगों के लिए विरोधाभास ही तो है।
विद्यार्थियों के क्रियाकलापों को भी जरा गौर से देखिए। अनेक विद्यार्थी घर पर पढ़ने के लिए समय सारणी बनाते हैं। लेकिन चार-पांच दिन बाद उनका उत्साह ढीला हो जाता है और वे उसका पालन करना छोड़ देते हैं। इसी तरह जब हम किसी पत्रिका में आइएएस या पीसीएस में टॉप करने वाले विद्यार्थी का साक्षात्कार पढ़ते हैं तो उससे प्रभावित होकर कड़ी मेहनत शुरू कर देते हैं लेकिन कुछ दिनों में हमारा उत्साह ढीला पड़ जाता है।
दूसरी तरफ कृत्रिम विरोधाभास हमारे जीवन के अस्तित्व को हमेशा चुनौती देता रहता है। कृत्रिम विरोधाभास क्या होता है? कोई राजनेता जब जनता के सामने आदर्शवाद की बात करता है लेकिन वास्तविक जीवन में उसका आचरण इस आदर्शवाद से बिल्कुल विपरीत होता है तो यह कृत्रिम विरोधाभास है। यानी यह प्राकृतिक रूप से मौजूद नहीं है बल्कि अपने स्वार्थ के लिए जबरदस्ती पैदा किया गया है। दरअसल विरोधाभास का यह सिलसिला कभी रुकता नहीं है। उड़ना पक्षियों की नियति है और उनकी मुक्ति का मार्ग भी लेकिन पेड़ की डाल पर बैठकर जमीन से जुड़ना उन्हें भी अच्छा लगता है। शायद यही जिंदगी है। कुछ उड़ती हुई, कुछ जमीन से जुड़ी हुई। जिंदगी-विरोधाभासों से भरी हुई।