उत्तराखंड में इस बार सर्दियों में बारिश और बर्फबारी बेहद कम हुई है। मौसम विज्ञानी इसके लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार मान रहे हैं। साथ ही एक बात और उल्लेखनीय है कि इस बार देरी से सर्दियों में बर्फबारी और बारिश हुई ,जिस वजह से सर्दियों में बर्फबारी होने के बावजूद तापमान सामान्य से ज्यादा गर्म रहा।
मौसम विज्ञानियों का मानना है कि इस बार उत्तराखंड की पहाड़ियों में बर्फबारी और बारिश का देरी से और कम होना पश्चिमी विक्षोभ का कमजोर पड़ना और ऊपर से ही ऊपर चले जाना मुख्य वजह मानी जा रही है। मौसम विज्ञान केंद्र उत्तराखंड के प्रमुख विक्रम सिंह का कहना है कि इस बार सर्दियों में बारिश और बर्फबारी पिछले सालों के मुकाबले अत्यधिक कम हुई है।
पिछले दो सालों के सर्दियों की बारिश के आंकड़े उठाकर देखें तो बारिश और बर्फबारी दोनों कम हुई है। 2023 में जनवरी और फरवरी में बारिश 63 फीसद कम हुई थी जबकि 2024 में जनवरी और फरवरी में बारिश में 52 फीसद की कमी आई। वहीं, दूसरी ओर 2022 में सर्दियों में बारिश और बर्फबारी 59 फीसद अधिक हुई थी।
मौसम विज्ञान केंद्र के प्रमुख विक्रम सिंह का कहना है कि इस साल 2024 सर्दियों के जनवरी और फरवरी महीने में सामान्य से अत्यधिक कम हुई। जनवरी और फरवरी के मौसम में बारिश 99.01 मिमी होनी चाहिए जबकि बारिश इन दो महीनों जनवरी और फरवरी में इस साल 47.05 मिमी ही हुई है। सर्दियों में बारिश कम होने से बर्फबारी भी कम होती है, जिसका विपरीत प्रभाव जलवायु में पड़ता है।
उत्तराखंड में पहाड़ों में जिस तरह से आंदोलन तरीके से जंगल काटे जा रहे हैं,बड़ी-बड़ी विशालकाय सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है और रेल पटरिया बिछाई जा रही है। उससे इस पर्वतीय क्षेत्र में जलवायु में विपरीत प्रभाव पड़ा है और जिसका दुष्परिणाम अब सामने आ रहा है। भारतीय पर्यावरण विज्ञान परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रोफेसर बी डी जोशी का कहना है कि सर्दियों के मौसम में बारिश और बर्फबारी का कम होना पर्वतीय और मैदानी क्षेत्रों में ग्रीष्मकाल में पानी की समस्या को और अधिक बढ़ाएगी जिससे पेयजल और खेतों में सिंचाई की पानी की किल्लत होगी और गर्मियों में तापमान सामान्य से और अधिक बढ़ेगा।
इससे कई वनोषधियां विलुप्त हो जाएगी। इस जलवायु परिवर्तन का असर हिमालय के उत्तराखंड के क्षेत्र तथा उससे लगे हुए अन्य क्षेत्रों के हिमनदों पर भी पड़ेगा। कम बर्फबारी होने से गर्मियों में हिमनद तेजी से पिघलेंगे और उनके अस्तित्व पर भी संकट खड़े होने की संभावनाएं बलवती होंगी।
उत्तराखंड में 1263 हिमनद मौजूद है जो उत्तराखंड से निकलने वाली गंगा ,यमुना, अलकनंदा,भिलंगना ,सरयू तथा अन्य नदियों के प्रमुख स्रोत है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव इन नदियों में भी पड़ रहा है और इनका तापमान बढ़ रहा है और इनके जल में कमी आ रही है। प्रोफेसर जोशी बताते हैं कि उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों चमोली, उत्तरकाशी, पिथौरागढ़ ,अल्मोड़ा में यह भी देखा जा रहा है कि इस साल लगभग एक महीना पहले ही बुरांश के फूल खिलने लगे है, इसका कारण इस साल कम वर्षा होना,कम हिमपात होना है।
,जिसकी वजह से दिन भर में प्रकाश की मात्रा का ज्यादा होना, साथ ही साथ पर्यावरण का तापक्रम शुष्कता लिए हुए अधिक होना है और यह या तो पर्यावरण परिवर्तन को प्रदर्शित करता है या सिर्फ इस साल की एक घटना हो सकती है, लेकिन यह तो निश्चित है कि ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट डिस्टरबेंस की प्रक्रिया चल रही चल रही है। अब इस वर्ष यदि इसी प्रकार का मौसम बना रहता है तो नदियों और झीलों में पानी की कमी भी होगी, जहां एक ओर पर्यावरण का तापक्रम बढ़ेगा, वहीं दूसरी ओर बिजली का उत्पादन भी कम हो जाएगा, जिसके दूरगामी परिणाम होंगे।
वहीं, अंतरराष्ट्रीय पक्षी विज्ञानी गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान विभाग के पूर्व प्रोफेसर दिनेश चंद्र भट्ट का कहना है कि उत्तराखंड में जिस तेजी से जलवायु परिवर्तन हो रहा है उसका विपरीत प्रभाव स्थानीय और प्रवासी पशु पक्षी प्रजातियां पर भी पड़ा है। ऋतु परिवर्तन में बदलाव आने से स्थानीय और प्रवासी पक्षियों के आने-जाने के क्रम में बदलाव हुआ है और उससे उनकी प्रजनन क्षमता भी प्रभावित हुई है।
गोरिया एवं अन्य पक्षी की प्रजातियां जो बसंत ऋतु में अपना प्रजनन प्रारंभ कर देती थी, इस बार उनके प्रजनन प्रारंभ नहीं हुआ है क्योंकि मौसम में एकाएक परिवर्तन हो रहा है। पक्षियों को एक निश्चित तापमान और दिनमान की आवश्यकता होती है। प्रजनन प्रारंभ करने के लिए हिमालय के उच्च क्षेत्र से मैदानी क्षेत्र में प्रवास हेतु आने वाले पक्षी प्रजातियों की वापसी भी अभी देर से होगी क्योंकि मौसम में एकाएक परिवर्तन हो रहा है।
उन्होंने बताया कि इस बार पक्षियों में मादा आमंत्रण हेतु गाए जाने वाले गीत अभी प्रारंभ नहीं हुए हैं क्योंकि मौसम में अभी ठंडक बनी हुई है, जिस कारण मादा पक्षी द्वारा अंडों की सिकाई का कार्य ठीक प्रकार से संभव नहीं होगा और फलस्वरुप अंडे से चूजा बनने में देरी अथवा चूजों की मृत्यु होने की आशंका बनी रहती है।