‘हानि और क्षति’ का तात्पर्य जलवायु परिवर्तन के कारण हुई आपदाओं से होने वाला विनाश है। हानि और क्षतिपूर्ति के समाधान के लिए वित्तपोषण या एक नया कोष बनाना भारत सहित विकासशील और गरीब देशों की लंबे समय से लंबित मांग रही है, लेकिन अमीर देश एक दशक से अधिक समय से इस पर चर्चा से परहेज करते रहे। विकसित देशों, खासकर अमेरिका ने इस डर से इस नए कोष का विरोध किया था कि ऐसा करना जलवायु परिवर्तन के चलते हुए भारी नुकसान के लिए उन्हें कानूनी रूप से जवाबदेह बनाएगा।

भारत ने जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले प्रतिकूल प्रभावों से निपटने के लिए कोष स्थापित करने संबंधी समझौता करने के वास्ते सम्मेलन को ऐतिहासिक करार दिया, लेकिन संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन जीवाश्म र्इंधन को लेकर भारत का जोर ज्यादा था। भारत ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के मुद्दे को लेकर किसानों का सवाल उठाया।

अहम सवालों पर गतिरोध

शिखर सम्मेलन को शुक्रवार को समाप्त होना था, लेकिन ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी, हानि एवं क्षति (एल एंड डी) निधि और अनुकूलन समेत कई मामलों पर समझौते के लिए वार्ताकारों के जोर देने पर इसे निर्धारित समय से आगे बढ़ाया गया। वार्ता एक समय में असफल होने के करीब पहुंच गई थी, लेकिन हानि और क्षति से निपटने की एक नई वित्तीय सुविधा पर प्रगति के बाद अंतिम घंटों में इसने गति पकड़ ली।

‘हानि और क्षति कोष’ का प्रस्ताव जी77 और चीन (भारत इस समूह का हिस्सा है), अल्प विकसित देशों और छोटे द्वीपीय राष्ट्रों ने रखा था। उम्मीद की जा रही थी कि तेल और गैस सहित सभी जीवाश्म र्इंधन के इस्तेमाल को चरणबद्ध तरीके से समाप्त किए जाने के प्रस्ताव को भी शामिल किया जाएगा।

सीओपी26 में जिस बात पर सहमति बनी थी, अंतिम समझौते में उसे आगे नहीं बढ़ाया गया। हालांकि, तुलनात्मक रूप से सीओपी27 ने नवीकरणीय ऊर्जा के संबंध में अधिक कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया और ऊर्जा माध्यमों में बदलाव की बात करते हुए न्यायोचित बदलाव के सिद्धांतों को शामिल किया गया।

भारत की भूमिका

इस समझौतों के लिए भारत ने रचनात्मक और सक्रिय भूमिका निभाई। अंतरराष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन में शामिल वार्ताकारों ने भारतीय समयानुसार रविवार करीब पौने आठ बजे उस ऐतिहासिक समझौते को मंजूरी दे दी, जिसके तहत विकसित देशों के कार्बन प्रदूषण के कारण पैदा हुई मौसम संबंधी प्रतिकूल परिस्थितियों से प्रभावित हुए अल्प विकसित देशों को मुआवजा देने के लिए एक निधि स्थापित की जाएगी।

कोष स्थापित करना उन अल्प विकसित देशों के लिए एक बड़ी जीत है, जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए लंबे समय से नकदी की मांग कर रहे हैं। भारत समेत कई देशों का मानना है कि अमीर देश जो कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं, उसके चलते मौसम संबंधी हालात बदतर हुए हैं, इसलिए उन्हें मुआवजा दिया जाना चाहिए।

दानदाताओं का मुद्दा

ऐसी उम्मीदें थीं कि सीओपी27 उत्सर्जन में कमी पर नई प्रतिबद्धताओं, विकासशील देशों को संसाधनों के हस्तांतरण के लिए नए सिरे से प्रतिबद्धताओं, जीवाश्म र्इंधन से संक्रमण के लिए मजबूत संकेत और हानि और क्षति निधि की स्थापना के नेतृत्व की दिशा में आगे बढ़ेगा। सीओपी27 की बड़ी सफलता हानि और क्षति के लिए एक कोष स्थापित करने का समझौता था।

इसमें जलवायु परिवर्तन, विशेष रूप से सूखे, बाढ़, चक्रवात और अन्य आपदाओं के प्रभावों के लिए विकासशील राज्यों को क्षतिपूर्ति करने वाले धनी राष्ट्र शामिल होंगे। अधिकांश विश्लेषकों का कहना है कि दानदाताओं, प्राप्तकर्ताओं या इस कोष तक पहुंचने के नियमों के संदर्भ में अभी भी बहुत कुछ स्पष्ट करना बाकी है। यह स्पष्ट नहीं है कि धन वास्तव में कहां से आएगा, या उदाहरण के लिए, चीन जैसे देश योगदान करेंगे या नहीं।

जानकारों के मुताबिक, 2020 तक विकासशील देशों के लिए प्रति वर्ष 100 अरब अमेरिकी डालर का जलवायु वित्त प्रदान करने में विकसित देशों की विफलता को देखते हुए हमें वादों और वास्तव में धन देने के बीच के संभावित अंतर को भी स्वीकार करना चाहिए। इस संबंध में 2009 में कोपेनहेगन में प्रतिबद्धता जताई गई थी।

जिन चुनौतियों पर बात नहीं हुई

वर्ष 2015 में पेरिस और पिछले साल ग्लासगो में की गई प्रतिबद्धताओं को निभाने को लेकर किए गए विभिन्न झगड़े शामिल थे। पेरिस में, राष्ट्र ग्लोबल वार्मिंग को पूर्व-औद्योगिक स्तरों की तुलना में दो डिग्री सेल्सियस से नीचे, और अधिमानत: इस शताब्दी में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने पर सहमत हुए। अब तक, ग्रह 1.09 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो चुका है और उत्सर्जन शीर्ष स्तर पर है।

तापमान प्रक्षेपवक्र दुनिया के लिए तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना तेजी से चुनौतीपूर्ण बना देता है। मिस्र में इस प्रतिबद्धता को बनाए रखना एक कठिन लड़ाई थी जो शमन के लिए वैश्विक प्रतिबद्धता पर कुछ संदेह पैदा करती है।

चीन ने विशेष रूप से सवाल किया था कि क्या 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य बनाए रखने के लायक था, और यह वार्ता में एक महत्वपूर्ण चुनौती बन गई। न्यूजीलैंड के जलवायु परिवर्तन मंत्री जेम्स शा ने कहा कि देशों के एक समूह ने पिछले सम्मेलनों में किए गए निर्णयों को कमजोर किया है। ज्यादा चिंता की बात जीवाश्म र्इंधन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के लिए नए सिरे से प्रतिबद्धता का अभाव था, जिसे ग्लासगो में चिह्नित किया गया था।

क्या कहते हैं जानकार

दुनिया को किसानों पर न्यूनीकरण की जिम्मेदारियों का बोझ नहीं डालना चाहिए। इससे लाखों छोटे किसानों की आजीविका का मुख्य आधार कृषि जलवायु परिवर्तन से बुरी तरह प्रभावित होगी, इसलिए भारत ने अपने एनडीसी (राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान) से कृषि में न्यूनीकरण को अलग रखा है।
भूपेंद्र यादव, केंद्रीय पर्यावरण मंत्री (शर्म अल शेख के सम्मेलन में संबोधन)

सीओपी27 का एक और संदेश बहुपक्षीय विकास बैंकों में सुधार करना है ताकि विकासशील देशों को कर्ज में डूबे बिना अधिक जलवायु वित्त प्रदान किया जा सके। सीओपी का चिंताजनक पहलू संबंधित क्षमताओं के सिद्धांतों का व्यापक रूप से कमजोर होना है, जो भारत जैसे देशों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है।
उल्का केलकर, निदेशक, क्लाइमेट प्रोग्राम (वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट)