नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिकता पंजी को लेकर चल रही बहस के जरिए शरणार्थियों का मुद्दा चर्चा में है। इस कानून को लेकर संवैधानिक प्रावधानों के उल्लंघन और देश की धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्घता को लेकर सवाल उठने लगे हैं। यह मुद्दा तस्वीर का एक पहलू है। दूसरे पहलू में संयुक्त राष्ट्र के वे आंकड़े हैं, जिनमें बताया गया है कि दुनिया भर में भटकने वाले शरणार्थियों में 10 हजार भारतीय हैं और अन्य 52 हजार ऐसे हैं, जिन्होंने विभिन्न देशों में शरण के लिए आवेदन दे रखा है। भारत आने वाले शरणार्थियों में चीन, श्रीलंका और म्यांमा के लोगों की संख्या ज्यादा है। जबकि, नागरिकता संशोधन कानून में इन तीन देशों का जिक्र ही नहीं किया गया है।
शरणार्थियों के आंकड़े
संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त कार्यालय के नवीनतम अनुमानों (2017) के अनुसार, भारत में दो लाख शरणार्थी हैं, जो इसे 25वां सबसे बड़ा मेजबान देश बनाते हैं। ये सभी तिब्बत, बांग्लादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और म्यांमार में नागरिक संघर्ष और युद्ध के शिकार होकर यहां आए हैं। संरा शरणार्थी कार्यालय की रिपोर्ट है कि भारत में 10,90,00 तिब्बती शरणार्थी, 65,700 श्रीलंकाई, 14,300 रोहिंग्या, 10,400 अफगानी, 746 सोमाली और 918 अन्य हैं। इसके अलावा संयुक्त संसदीय समिति की जनवरी 2019 में आई रिपोर्ट है, जिसमें रॉ और आइबी के हवाले से बताया गया है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत आए 31,313 धर्मीय शरणार्थी हैं। ये ऐसे लोग हैं, जो अपने देश में धार्मिक आधार पर प्रताड़ना का शिकार हुए और इसी आधार पर भारत ने उन्हें लंबी अवधि का वीजा दिया। इन 31,313 शरणार्थियों में 25,447 हिंदू हैं। दूसरे नंबर पर सिख हैं, जिनकी संख्या 5807 है। ईसाई 55, पारसी और बौद्ध दो-दो हैं।
हर शरणार्थी को सीधी छूट
भारत में ऐसे शरणार्थियों को शरण देने का लंबा इतिहास है, जिन्होंने कहीं और अत्याचार झेले हैं। नागरिकता संशोधन कानून का जोरदार विरोध हो रहा है, क्योंकि मुसलमानों को इसके दायरे से बाहर रखा गया है। देश के मौजूदा नियमों के अनुसार, पड़ोसी देशों (म्यांमार को छोड़कर) के शरणार्थी सरकार से सीधे सुरक्षा की मांग कर सकते हैं और उन्हें विदेशी क्षेत्रीय पंजीकरण अधिकारी (एफआरआरओ) दस्तावेज जारी करते हैं। गैर-पड़ोसी देश और म्यांमा के शरणार्थी यूएनएचसीआर (संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त) प्रावधानों के तहत आते हैं। सरकार अभी म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों सहित सभी शरणार्थियों को यूएनएचसीआर पहचान पत्र के साथ दीर्घकालिक वीजा के लिए आवेदन करने की अनुमति देती है, और हर मामले की अलग से छानबीन के बाद वीजा जारी करती है।
राजनैतिक आश्रय याचक और शरणार्थी
संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त कार्यालय ने राजनैतिक शरण मांगने वाले (आश्रय याचक) को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया है जो एक शरणार्थी के रूप में अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा की मांग करता है। कोई व्यक्ति इस आधार पर राजनैतिक शरण के लिए आवेदन कर सकता है कि यदि वह अपने मूल देश में लौटता/लौटती है तो नस्ल, धर्म, राष्ट्रीयता, राजनैतिक धारणा या किसी विशेष सामाजिक समूह की सदस्यता के कारण उसे अपने उत्पीड़न की आशंका है। ऐसे लोगों को इन प्रावधानों के तहत शरणार्थी की मान्यता दी जा सकती है- संरा 1951 सम्मेलन, 1967 प्रोटोकॉल, 1969 में बनी अफ्रीकी एकता संस्था, संरा शरणार्थी कार्यालय के विधान के अनुसार मान्यता प्राप्त लोग, पूरक सुरक्षा या अस्थायी सुरक्षा प्राप्त व्यक्ति और 2007 से शरणार्थियों जैसी स्थिति में रह रहे लोग।
आश्रय याचकों के लिए भारत में कानून
भारत में दक्षिण एशियाई क्षेत्र में सबसे अधिक शरणार्थी आबादी है, लेकिन यहां अभी तक आश्रय याचकों के लिए एक समान कानून नहीं बनाया जा सका है। भारत ने 1951 के शरणार्थी दर्जे के संबंध में संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन समझौते पर या मेजबान राज्य द्वारा आवश्यक रूप से शरणार्थियों को अधिकार और सेवाएं देने से संबंधित प्रोटोकॉल पर अभी तक दस्तखत नहीं किए हैं। बावजूद इसके, भारत इस नियम से बंधा हुआ है, क्योंकि यह प्रावधान 1984 के यंत्रणा विरोधी संधि में शामिल है, जिसका भारत भी एक हस्ताक्षरकर्ता है।
भारत में अधिकारियों द्वारा विभिन्न कानूनों, जैसे – पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम- 1920, विदेशी कानून, 1946 इत्यादि को ध्यान में रखकर शरणार्थियों और आश्रय याचकों के प्रवेश के संबंध में विचार किया जाता है। ये कानून शरणार्थियों को अन्य विदेशियों के समतुल्य मानते हैं और इस बात का विचार नहीं करते कि मानवीय आधार पर उन्हें विशेष दर्जा मिलना चाहिए। दिसंबर 2015 में कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने आश्रय विधेयक, 2015 पेश किया, जो भारत के शरणार्थियों को संगठित और सुव्यवस्थित करने के लिए कानूनी ढांचे की स्थापना करेगा। यह विधेयक अभी विचाराधीन है।