प्राचीन भारत में एक प्रसिद्ध राजा हुए, नाम था उनका ‘राजेंद्र चोल प्रथम’। उनके नाम तमाम उपलब्धियां हैं। दक्षिण भारत में स्थित कई बड़े-बड़े मंदिरों को बनाने का श्रेय इसी राजा को जाता है। अब ये राजा एक बार फिर चर्चा में है। इस बार चर्चा में होने की वजह उनके द्वारा किए गए कार्य हैं। उनके साम्राज्य के दौरान मतदान प्रणाली दुनिया की पहली निर्वाचन व्यवस्था मानी जाती है। जिसको लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बात की है। आइए जानते हैं चोल साम्राज्य की निर्वाचन प्रणाली…
राजेंद्र चोल द्वारा निर्मित हजार साल पुराने पत्थर के मंदिर के सामने खड़े होकर पीएम मोदी ने बीते रविवार को कहा कि चोल साम्राज्य ने भारत की प्राचीन लोकतांत्रिक परंपराओं को आगे बढ़ाया। मोदी ने 1215 के अंग्रेजी चार्टर मैग्ना कार्टा की बात करते हुए कहा, ‘ दुनिया भर के इतिहासकार लोकतंत्र के नाम पर ब्रिटेन के मैग्ना कार्टा की बात करते हैं। लेकिन कई सदियों पहले, चोल साम्राज्य में लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव होते थे। उसका जिक्र भी कोई नहीं करता।’
यूरोप में ज्ञानोदय युग के आगमन और प्रतिनिधि शासन के आदर्शों से बहुत पहले ही चोलों ने अपने स्थानीय शासन के नियम बनाए थे, जो अक्षरशः पत्थरों पर अंकित थे। वर्तमान कांचीपुरम जिले के एक गांव उत्तरमेरुर के शिलालेख, एक प्रबंधित निर्वाचन व्यवस्था के दुनिया के कुछ सबसे पुराने जीवित प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
चोल साम्राज्य में जमीनी स्तर पर था लोकतंत्र
जैसा कि कनिलकांत शास्त्री ने द चोलस (1935) में इस बात का जिक्र किया है कि चोल प्रशासनिक ढांचा दो मूलभूत इकाइयों पर आधारित था, पहला ब्राह्मण वर्ग के लिए क्लीमेंट्स के लिए सभा और दूसरा गैर-ब्राह्मण गाँवों के लिए उर। ये प्रतीकात्मक परिषदें नहीं थीं, बल्कि निर्वाचित डोडी थीं जिनके पास राजस्व (धन) पर वास्तविक अधिकार थे। उस राज्य में राजस्व, सिंचाई, मंदिर प्रबंधन और यहां तक कि न्याय भी। शास्त्री ने स्थानीय स्वशासन को लेकर इस बात का भी जिक्र किया है कि यह जमीनी स्तर पर लोकतंत्र था जो तमिल नागरिक जीवन के ताने बाने में रचा-बसा था।
चोल साम्राज्य में इस प्रणाली को विशेष रूप से प्रभावशाली बनाने वाली बात मतदान की विधि थी। जिसे आज के समय में कुदावोलाई प्रणाली या “बैलेट पॉट” चुनाव कहा जाता है। इस पद्धति के तहत, जैसा कि एपिग्राफिया इंडिका खंड XXII (1933-34) में उल्लेखित उत्तरमेरुर शिलालेखों में विस्तार से बताया गया है कि योग्य उम्मीदवारों के नाम ताड़ के पत्तों पर अंकित करके एक बर्तन में रख दिए जाते थे। एक युवा बालक, जिसे आमतौर पर उसकी निष्पक्षता के लिए चुना जाता था, सबके सामने पर्ची निकालता था।
यह प्रक्रिया- डोमाइज्ड ड्रॉ यानी नाम निकालने की प्रक्रिया कोई भाग्य का खेल नहीं था बल्कि पारदर्शिता, निष्पक्षता और सामूहिक सहमति पर आधारित एक नागरिक नियम था। जबकि कई इतिहासकार इसे ईश्वरीय इच्छा और नागरिक अखंडता के संयोजन के लिए डिजाइन किया गया मानते हैं, मूलतः यह सुनिश्चित करने के लिए कि सत्ता पर वंशवादी अभिजात वर्ग का एकाधिकार न हो, इस प्रणाली के तहत पात्रता के मानदंड कड़े थे। उम्मीदवारों के पास कर देने लायक जमीन होनी चाहिए। उनकी उम्र 35 से 70 वर्ष के बीच होनी चाहिए। उन्हें वैदिक ग्रंथों या प्रशासन का ज्ञान होना चाहिए और उनका कोई अपराध या घरेलू हिंसा का रिकॉर्ड नहीं होना चाहिए। ऋण न चुकाने वालों, शराबियों और मौजूदा सदस्यों के करीबी रिश्तेदारों को अयोग्य घोषित कर दिया जाता था। शास्त्री ने लिखा, “अयोग्यताएं शायद योग्यताओं से भी ज्यादा स्पष्ट थीं, जो लोक सेवा के नैतिक दृष्टिकोण को दर्शाती थीं।
जनता के प्रति जनप्रतिनिधि की जवाबदेही सामान्य बात थी
जनता के प्रति जवाबदेही सामान्य बात थी। पूरे साल का लेखा जोखा रखना और जनता के सामने रखना अनिवार्य थे। धन का दुरुपयोग या कर्तव्य की उपेक्षा भविष्य में पद से अयोग्यता का कारण बन सकती थी, जो आधुनिक मानकों के हिसाब से भी एक बेहतरीन व्यवस्था थी। एपिग्राफिया इंडिका के शिलालेख संख्या 24 में गबन के आरोप में एक कोषागार अधिकारी की बर्खास्तगी और उसके बाद जुर्माना लगाने का विवरण भी मिलता है। ये कोई अलग-थलग प्रयोग नहीं थे। जैसा कि अनिरुद्ध कनिसेट्टी ने लॉर्ड्स ऑफ द अर्थ एंड सी (पेंगुइन, 2023) में लिखा है कि चोल शासन-कला का मॉडल बहुत हद तक धन-हानि पर निर्भर था।
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दक्षिण भारत के दौरे पर रहे पीएम मोदी ने इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए कहा, “हम उन राजाओं के बारे में सुनते हैं जो विजय के बाद सोना, चांदी और पशु लेकर आए। लेकिन राजेंद्र चोल धन के रूप में सबसे बड़ी विरासत गंगाजल लेकर आए थे।” यह सम्राट द्वारा 1025 ई. में अपनी नई राजधानी गंगईकोंडा चोलपुरम में गंगाजल लाने के प्रतीकात्मक कार्य का संदर्भ था। ताम्रपत्रों में अंकित इस कार्य को विजय का तरल स्तंभ यानी गंगा-जलामयं जयस्तंभ बनाने के रूप में वर्णित किया गया था, जिसमें सैन्य विजय को अनुष्ठानिक शासन कला के साथ मिला दिया गया था। इस बात का उल्लेख शास्त्री की पुस्तक “द चोलस” में लिखित मिलती है।
हालाकि चोल व्यवस्था आधुनिक अर्थों में समतावादी नहीं थी। इसमें महिलाओं, मजदूरों और भूमिहीन समूहों को शामिल नहीं किया गया था। लेकिन जैसा कि इतिहासकार तानसेन सेन ने राजेंद्र चोल के सैन्य अभियानों में लिखा है कि चोल न केवल नौसैनिक विजयों के माध्यम से, बल्कि चुनावी विचारों को मूर्त रूप देने वाली शासन संरचनाओं में भी, रणनीतिक संकेत देने में माहिर थे।