Parliament Ambedkar Controversy: केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के आंबेडकर को दिए गए बयान पर देश की सियासत में संग्राम मचा हुआ है। कांग्रेस पार्टी मोदी सरकार से मांग कर रही है कि या तो अमित शाह इस्तीफा दें या फिर उन्हें कैबिनेट से बाहर किया जाए। हालांकि इस मामले में बीजेपी भी फ्रंटफुट पर हैं और कांग्रेस पर आधे वीडियो को तोड़-मरोड़ कर पेश करने का आरोप लगाते हुए इतिहास भी याद दिला रही है। पीएम मोदी ने इतिहास का जिक्र करते हुए आरोप लगाया है कि आंबेडकर को कांग्रेस पार्टी ने चुनाव नहीं जीतने दिया था।

दरअसल, पीएम मोदी ने कांग्रेस पर “दुर्भावनापूर्ण झूठ” फैलाने का आरोप लगाया। पीएम मोदी ने दावा किया कि डॉ अंबेडकर के प्रति कांग्रेस ने कई पाप किए और उन्हें दो बार चुनावों में हराने का काम किया। पीएम मोदी ने यह भी कहा कि पंडित नेहरू द्वारा उनके खिलाफ प्रचार करना और उनकी हार को प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाया गया था।

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नेहरू कैबिनेट में शामिल थे नेहरू

इतिहास के पन्नों को पलटें तो पूर्व पीएम पंडित नेहरू ने भारत की पहली सरकार में आंबेडकर को अपने 15 सदस्यीय मंत्रिमंडल में शामिल किया था और उन्हें कानून मंत्री नियुक्त किया था। उस समय कांग्रेस का दबदबा चरम पर था, लेकिन 1952 में पहले चुनावों से पहले ही विभिन्न राजनीतिक ताकतें उभर रही थीं।

नेहरू के अधीन उद्योग मंत्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ का गठन किया, जो दशकों बाद बीजेपी बना था। आंबेडकर ने खुद 1936 में स्वतंत्र मजदूर पार्टी (ILP) का गठन किया था और अनुसूचित जाति संघ (SCF) की स्थापना की थी।

आंबेडक पर विरोध के बीच संसद में क्या हुआ?

रामचंद्र गुहा के लेख में क्या?

2002 में वर्ल्ड पॉलिसी जर्नल में एक लेख पब्लिश हुआ। इसका टाइटल ‘लोकतंत्र का सबसे बड़ा जुआ’ था। 1952 में भारत का पहला स्वतंत्र चुनाव शीर्षक वाले लेख में इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने लिखा था कि आंबेडकर ने इस समय कांग्रेस पर “निचली जातियों को ऊपर उठाने के लिए कुछ नहीं करने” के लिए तीखा हमला किया था।

इस लेख में रामचंद्र गुहा ने लिखा कि यह वही पुराना अत्याचार, वही पुराना उत्पीड़न, वही पुराना भेदभाव था। आंबेडकर ने कहा था कि स्वतंत्रता मिलने के बाद कांग्रेस पार्टी एक धर्मशाला में तब्दील हो गई थी, जिसमें उद्देश्य या सिद्धांतों की एकता नहीं थी और यह सभी के लिए खुली थी, मूर्खों और धूर्तों, दोस्तों और दुश्मनों, संप्रदायवादियों और धर्म निरपेक्षतावादियों, सुधारकों और रूढ़िवादी और पूंजीपतियों और पूंजीवाद विरोधियों के लिए कांग्रेस के दरवाजे खुले हैं।

पहला चुनाव हार गए थे आंबेडकर

बता दें कि पहला लोकसभा चुनाव अक्टूबर 1951 और फरवरी 1952 के बीच हुआ था, जिसमें अंबेडकर ने बॉम्बे नॉर्थ सेंट्रल से चुनाव लड़ा था। अशोक मेहता के नेतृत्व वाली सोशलिस्ट पार्टी ने उनका समर्थन किया था। इस सीट से अंबेडकर कांग्रेस के नारायण सदोबा काजरोलकर से 15,000 वोटों से हार गए।

राज्यसभा में अमित शाह ने क्या कहा था?

इतना ही नहीं, हार के बाद अंबेडकर ने नतीजों पर सवाल उठाए। पीटीआई की एक रिपोर्ट में 5 जनवरी, 1952 को उनके हवाले से कहा गया कि बॉम्बे की जनता का भारी समर्थन कैसे इतना झूठा साबित हो सकता है, यह वास्तव में चुनाव आयुक्त द्वारा जांच का विषय है।

73,000 वोटों की नहीं हुई गिनती

आंबेडकर और अशोक मेहता ने मुख्य चुनाव आयुक्त के समक्ष एक संयुक्त चुनाव याचिका दायर कर परिणाम को रद्द करने और उसे अमान्य घोषित करने का अनुरोध किया। उन्होंने अन्य बातों के अलावा दावा किया कि कुल 74,333 मतों को खारिज कर दिया गया और उनकी गिनती नहीं की गई।

समाजशास्त्री गेल ऑमवेट ने ‘अंबेडकर: टुवर्ड्स एन एनलाइटन्ड इंडिया’ किताब में लिखा है कि 1952 में समाजवादियों और दलितों दोनों का प्रदर्शन खराब रहा था। आंबेडकर खुद अपने गढ़ बॉम्बे में हार गए, उन्होंने हार का दोष कम्युनिस्टों पर मढ़ा। कम्युनिस्टों और आंबेडकर के वोटिंग बेस बॉम्बे के एक ही इलाके में थे। इसमें कपड़ा मिल अहम थी, जहां दलित और ओबीसी लंबे समय से बसे हुए लोग काम करते थे।

चुनावी प्रक्रिया को लेकर किया केस

जनवरी 1952 में आंबेडकर ने एसए डांगे की अगुआई में कम्युनिस्टों के खिलाफ चुनावी धोखाधड़ी का आरोप लगाते हुए अदालत का रुख किया था। इस मामले में यह तर्क दिया गया था कि उस समय की चुनावी व्यवस्था में, आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों को सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों के साथ जोड़ दिया गया था, और मतदाताओं के पास दो वोट थे, प्रत्येक सीट के लिए एक, इसके चलते 78,000 अवैध वोट थे, इनमें से आधे डांगे के थे।

सांसदों के चोटिल होने पर क्या बोले राहुल गांधी

अंबेडकर ने दावा किया कि कम्युनिस्टों ने उनके खिलाफ प्रचार किया था कि मतदाता अपने दोनों वोट एक उम्मीदवार को देते हैं, जो कि अवैध था। हालांकि वह केस हार गए, लेकिन अंबेडकर का गुस्सा शांत नहीं हुआ। ओवमेट ने लिखा कि आंबेडकर ने राज्यसभा के सदस्य के रूप में संसद में एक सीट अपने पास रखी थी।, लेकिन इसका मतलब था कि कांग्रेस पर निरंतर उनकी निर्भरता बनी रहेगी।

1954 में दूसरी बार लड़ा था चुनाव

1954 में आंबेडकर ने दूसरा चुनाव महाराष्ट्र के भंडारा निर्वाचन क्षेत्र से लड़ा था। इस बार वे कांग्रेस उम्मीदवार से करीब 8,500 वोटों से हार गए। जीवनी लेखक धनंजय कीर ने अपनी किताब डॉ आंबेडकर: लाइफ एंड मिशन में लिखा है कि इस चुनावी कैंपेन के दौरान आंबेडकर ने नेहरू के नेतृत्व पर सीधा हमला किया था, और उनकी विदेश नीति की आलोचना की थी।

‘आंबेडकर: ए लाइफ’ में कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने लिखा कि 1952 के आम चुनाव आंबेडकर के लिए अच्छे नहीं रहे। आंशिक रूप से ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उन्होंने देश के राष्ट्रवादी आंदोलन के राजनीतिक अवतार कांग्रेस पार्टी की मतदाताओं की कल्पनाओं पर पकड़ को कम करके आंका और आंशिक रूप से इसलिए क्योंकि आंबेडकर को यह एहसास नहीं हुआ कि आम जनता की नज़र में उनके कुछ पद कितने अलोकप्रिय थे।

तीसरे नंबर पर रहे थे आंबेडकर

इस किताब में कहा गया कि जब उन्होंने बॉम्बे नॉर्थ सीट से चुनाव लड़ा, तो वे संविधान के मुख्य प्रारूपकार और मज़दूर वर्ग और अनुसूचित जातियों के प्रमुख नेता थे; फिर भी वे अपने पूर्व सहायक, कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार नारायण सदोबा काजरोलकर से हार गए। फिर भी कांग्रेस ने आंबेडकर को उच्च सदन, राज्य सभा का सदस्य नियुक्त किया।

शशि थरूर की किताब के मुताबिक आंबेडकर को यह पद पसंद नहीं आया, वे अपने पुराने दुश्मनों पर अपनी निर्भरता से नाराज़ थे और 1954 में भंडारा नामक निर्वाचन क्षेत्र से उपचुनाव में फिर से लोकसभा में प्रवेश करना चाहते थे। इस बार उनका प्रदर्शन और भी खराब रहा और वे तीसरे स्थान पर रहे। एक बार फिर, कांग्रेस पार्टी ने सीट जीती। आंबेडकर उदास होकर राज्यसभा में बैठे रहे।