इक्कीसवीं सदी में जन्मे युवाओं के लिए उस समय की कल्पना करना आसान नहीं है, जब भारत में अंग्रेजों का निरंकुश शासन था। गरीबी, भुखमरी और शोषण अपने चरम पर थे। भारतीयों का मनोबल निम्नतम स्तर पर था और इस सबका लगातार और विस्तृत होते जाना सामान्य प्रक्रिया बन गई थी। देशव्यापी स्थिति यह थी कि भुक्तभोगी न कुछ कह सकते थे, न कर सकते थे। स्थानीय स्तर पर अनेक व्यक्ति, वर्ग और संस्थाएं आजादी के लिए कार्य कर रही थीं, लेकिन उनका प्रभाव भी सीमित ही रह जाता था, ब्रिटिश साम्राज्य को उसे कुचलने में कोई दुविधा नहीं होती थी। 1857 का स्वतंत्रता संग्राम सशक्त संयोजन के अभाव में अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सका। भारत की स्वतंत्रता के लिए आवश्यकता तो एक सुगठित और संगठित राष्ट्रीय प्रयास की थी। दक्षिण अफ्रीका में अपनी वैचारिकता, कर्मठता और अटल सिद्धांतवादिता का लोहा सारे विश्व में मनवा कर जब गांधी भारत आए, तब स्वतंत्रता के लिए किए जा रहे प्रयासों के बिखराव की ही स्थिति थी।

गांधी का आगमन: कांग्रेस को नई दिशा

गांधी जी ने सुसुप्त संस्था कांग्रेस का रूप-स्वरूप पूरे का पूरा बदल दिया। उनके आने के बाद जो भी भारतीय भारत की स्वतंत्रता चाहता था, देश की एकता चाहता था, उसके लिए संघर्ष करने के लिए प्रतिबद्ध था। वह उसका सदस्य हो सकता था। उसका, मत, पंथ, मजहब, धर्म, राजनीतिक प्रतिबद्धता कोई भी हो, लक्ष्य सभी का एक था, लेकिन हर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के अपने सपने थे। भारत में गांधी का मुख्य आंदोलन तो चंपारण के नील की खेती करने वाले किसानों को लेकर ही प्रारंभ हुआ था। उसने विश्वव्यापी परिदृश्य को उस समय विचलित कर दिया, जिस समय उपनिवेशों में रहने वाली प्रजा पर उनके शासकों के अत्याचार बहुत ही कम लोगों का ध्यान आकर्षित करते थे। अमेरिका में अफ्रीका से जबरदस्ती पकड़ कर ले जाए जाने वाले लोगों पर किस-किस प्रकार के जुल्म कानूनी तौर पर जायज माने जाते थे, यह जान कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मनुष्य ने मनुष्य के साथ जितनी क्रूरता की है, वह मानवीय चेतना के विकास की अत्यंत कष्टकर कथा ही कही जा सकती है।

इतिहास की याद: स्वतंत्रता और आज का सवाल

यह सब क्यों याद किया जाना चाहिए? क्या यह सर्वविदित ऐतिहासिक तथ्यों को दोहराना नहीं है? यह सब याद करना आवश्यक है, अगर मूल प्रश्न पर ईमानदारी से विचार किया जाए : क्या स्वतंत्र भारत का हर नागरिक सही मायने में एक सफल, संतुष्ट और सम्मानपूर्वक जीवन जीने की राह पर आगे बढ़ रहा है? या वह अपने विकास और प्रगति के मार्ग में नए कांटे बोता जा रहा है। क्या इस प्रश्न पर सघन विचार-विमर्श भी प्रारंभ हुआ है? और नहीं, तो ऐसा कब होगा और कौन करेगा, कौन आगे बढ़ेगा?

आधुनिकता की उपलब्धियां और मानवता का संकट

आज मनुष्य के पास अनगिनत उपलब्धियां हैं। बहुत कुछ ऐसा है, जिस पर वह गर्व करता है, और जो वास्तव में उसकी सराहनीय उपलब्धियां हैं। उसने विज्ञान के गूढ़ रहस्य उद्घाटित कर लिए हैं, उसके पास विज्ञान और प्रौद्योगिकी तो है ही, अब संचार तकनीकी, इंटरनेट और एआइ भी उसके नियंत्रण में है। किसी भी क्षण किसी भी स्थान पर बैठ कर कर वह पृथ्वी या आकाश में किसी से और कहीं भी त्वरित संपर्क स्थापित कर सकता है। यही नहीं, उसके पास इतने और ऐसे आयुध हैं कि वह किसी भी स्थान को और वहां के लोगों को समूल नष्ट कर सकता है। मनुष्य ने हिरोशिमा और नागासाकी में मानवता के साथ किए गए जघन्य अपराध के पश्चात भी अपनी मारक क्षमताओं को और अधिक घातक बनाने के लगातार प्रयास जारी रखे हैं, उनमें कोई कमी नहीं की है।

युद्ध और शांति: असफल अंतरराष्ट्रीय प्रयास

दो विश्व युद्धों की विभीषिका झेलने के पश्चात ऐसा वैश्विक मंच निर्मित किया गया था, जहां बैठ कर भविष्य को युद्ध और हिंसा से सदा के लिए मुक्त किया जा सके। वे संस्थाएं अभी भी हैं, लोकतंत्र की हंसी उड़ाते सुरक्षा परिषद में पांच स्थायी सदस्यों को मिले वीटो का अधिकार भी है, जिसमें एक देश बाकी सभी देशों की राय के विरुद्ध अधिकृत ढंग से जा सकता है। अगर भारत विश्व का सबसे प्राचीन गणतंत्र की परंपरा का देश है, विश्वगुरु बनने का दम भरता है, तो क्या यह उसका नैतिक उत्तरदायित्व नहीं है कि वह सक्रिय रूप से इस व्यवस्था का विरोध करे?

गांधीवादी रास्ता: मानवता के लिए एकमात्र विकल्प

अर्नोल्ड टायनबी जैसे अनेक विद्वान भी यह विश्वास व्यक्त कर चुके है कि विश्व को, पृथ्वी ग्रह को, मनुष्यता को बचाने का रास्ता गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर और रामकृष्ण परमहंस का ही रास्ता हो सकता है। भारत की समस्या यह है कि लोकतंत्र का जो निर्मल स्वरूप गांधीवादी मूल्यों के अंतर्गत आंबेडकर, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जैसे मनीषियों के अथक परिश्रम से निर्मित होकर लागू किया गया था, उसका स्वरूप विकृत करने में राजनेताओं ने कोई कमी नहीं छोड़ी है। देश की राजनीति में मूल्यों के ह्रास, संवादहीनता, अशालीनता, अविश्वास, आशंकाएं, अनर्गल आरोप-प्रत्यारोप तथा जन-भावनाओं के विपरीत आचरण हर तरफ फैले हुए हैं।

राजनीति में मूल्यों का पतन

जो भी इस सब के जंजाल में उलझ जाएगा, उसके पास अपने मतदाताओं के कल्याण के लिए सोचने-समझने और प्रयास करने का न तो समय बचेगा, न ही इच्छाशक्ति बचेगी। इसे समझने का सबसे शक्तिशाली, लेकिन सरल उपाय एक ही है : जो आदर और साख जन-प्रतिनिधियों को पहले के दो-तीन आम चुनावों में मिलती थी, उसका कितना अंश अब बचा है। दूसरा तरीका भी है : जो धन-संपत्ति जन प्रतिनिधियों के पास 1952-57 में थी, वह आज कितने गुना बढ़ चुकी है, और प्रतिवर्ष कितने गुना बढ़ रही है। जो यह जान लेगा उसे मतदाताओं की आय-वृद्धि की चिंता करने की आवश्यकता ही नहीं होगी।

लोकतंत्र की गिरती साख

इक्कीसवीं सदी में मानव सभ्य है, सुसंस्कृत है, उसके पास ज्ञान है, बुद्धि है, कौशल है। प्रकृति के अनेकानेक गूढ़ रहस्यों से वह परिचित हो चुका है। उसके पास अपने मजहब हैं, मत हैं, आस्थाएं हैं। मतभेद अनेक हैं, अनेक प्रकार के हैं, कुछ तो इतने प्रबल हैं कि उनके कारण पनपा आतंकवाद विश्व को हिंसा, युद्ध, अन्याय तथा अविश्वास के गर्त में डुबोता जा रहा है और उससे निस्तारण का कोई उपाय सुझाई नहीं देता है। दूसरी तरफ, मनुष्य अब यह भी समझ चुका है कि सब धर्मों-पंथों और मजहबों का स्रोत एक है और अंतिम लक्ष्य भी एक ही है। मनुष्य मात्र की एकता पर भी सभी को विश्वास है, मगर अपने-अपने ढंग से।

यहीं पर अत्यंत कठिन समस्या तब पैदा हो जाती है, जब कुछ लोग यह कहने लगते हैं या विश्वास करते हैं कि मेरा चुना हुआ रास्ता ही सर्वश्रेष्ठ है, और बाकी सभी को उसके अंतर्गत लाना मेरा ईश्वर-प्रदत्त उत्तरदायित्व है। यह सर्वश्रेष्ठ होने का भाव, इच्छा और प्रवृत्ति मनुष्य को अनेक अवसरों पर पथभ्रष्ट करने में कोई कसर बाकी नहीं रखती है। इस कटु सत्य को स्वीकार किया जाए या नहीं! तथ्य तो यही है कि विश्व में अनेकानेक हिंसा-स्थल केवल इस कारण पनपे हैं कि अपनी सभ्यता, संस्कृति और मजहब को सर्वश्रेष्ठ मानने के स्थान पर सभी सभ्यताओं, संस्कृतियों और आस्थाओं को समान मानना मनुष्य अभी सीख नहीं पाया है। शिक्षा के समक्ष यही चुनौती सबसे बड़ी है। सफल वैश्विक विकास यात्रा अपेक्षित समग्रता और सहभागिता के पश्चात ही प्रारंभ हो सकेगी।