पूरी दुनिया में भूगर्भ विज्ञानी भूकम्प की अलग-अलग स्थितियों के मद्देनजर धरातल पर होने वाली हलचलों पर लगातार नजर गड़ाए हुए हैं। किसी अतितीव्रता वाले भूकम्प के खतरों का भारत और बांग्लादेश में गंगा ही सामना नहीं कर रही, म्यांमा की इरावदी, चीन की येलो, अमेरिका की क्लैमथ और सीरिया-फिलस्तीन-इजराइल की सीमाओं से गुजरती जार्डन नदी की राह भी निरापद नहीं है। गंगा वैसे भी अपने तटों के प्राकृतिक कटाव के कारण समय-समय पर रास्ता बदलती रही है। गंगा और ब्रह्मपुत्र बीते छह हजार वर्षों में कई बार अपने रास्ते बदल चुकी हैं। ताजा अध्ययन में, वाखेनिगन यूनिवर्सिटी, नीदरलैंड की लेखिका एलिजाबेथ चेंबरलेन का एक अत्यंत डरावना निष्कर्ष सामने आया है कि जिस तरह लगभग ढाई हजार वर्ष पहले उच्च तीव्रता वाले भूकम्प ने 180 किलोमीटर तक गंगा का डेल्टा उलट-पलट दिया था, भविष्य में वैसा ही दुबारा घटित हो सकता है।
विश्व में ढाई हजार से ज्यादा ऐसी जगहें हैं, जहां नदियां सक्रिय ‘फाल्ट’ के ऊपर से बहती हैं
धरती के भीतर होने वाले कंपन कई बार नदियों का मार्ग बदल चुके हैं। ऐसे में नदी कभी-कभी अपने मूल स्थान से मीलों दूर चली गई है। इससे तटवर्ती नगरों-महानगरों के निर्माण तो ध्वस्त होते ही हैं, एक बड़े परिक्षेत्र की कृषि योग्य भूमि भी जलमग्न हो जाती है। अपने सबसे घातक और विनाशकारी रूप में आने वाला भूकम्प सड़कों, राजमार्गों को तोड़ते हुए पूरे परिदृश्य को मौलिक रूप से बदलने के साथ ही, नई-नई झीलें भी बना सकता है। विश्व में ढाई हजार से ज्यादा ऐसी जगहें हैं, जहां नदियां सक्रिय ‘फाल्ट’ के ऊपर से बहती हैं। यह एक जोखिम भरी स्थिति है। जहां भी अत्यधिक सक्रिय ‘फाल्ट’ के ऊपर बड़ी आबादी बसती और नदियां बहती हैं, वहां गंभीर संकट मुंह बाए खड़ा है।
जब ‘टेक्टोनिक प्लेटें’ सतह के नीचे एक-दूसरे को प्रतिकूलता में घिसती-खिसकती हैं, कंपन पैदा करती हुई चट्टान और मिट्टी की परतों के माध्यम से ऊपर उठती जाती हैं और ऐसे में भूकम्प का केंद्र नदी के करीब हुआ, तो जमीन का विस्थापन नदी की दिशा बदल देता है। नदियों और भूकम्पों के मामले में, धरातल की अंत:क्रियाओं का अध्ययन करके भावी परिवर्तनों के बारे में अधिक स्पष्टता से जाना जा सकता है। एक बड़े भूकम्प ने सन 1833 में जब कुमाऊं क्षेत्र को बुरी तरह झकझोरा, तो कोसी नदी पूरब के बजाय दक्षिण की ओर बहने लगी।
आसपास जलमग्न हो जाने से एक लाख से अधिक लोग विस्थापित हो गए। इसी तरह, 1556 में चीन के शांक्सी प्रांत में हजारों लोगों की जान ले चुके ग्रेट झेनबेई भूकम्प के दौरान पीली नदी ने मार्ग बदला, तो एक बड़ा कृषि क्षेत्र जलमग्न हो गया और नदी तीन सौ मील दक्षिण हुआई नदी में तब्दील हो गई थी। जापान के कांटो मैदान में 1923 में भूकम्प से टोन नदी का रास्ता तोक्यो खाड़ी से बदल कर प्रशांत महासागर में चला गया और ओयामा शहर में बाढ़ आ गई। डेढ़ दशक बाद दुबारा भूकम्प ने फिर से टोन का मार्ग बदल दिया।
जलवायु परिवर्तन के साथ जैसे-जैसे मौसम का ‘पैटर्न’ समुद्र के स्तर को प्रभावित कर रहा है, नदी प्रणालियों में भूकम्प से होने वाले महाविनाशकारी परिवर्तनों को समझना अपरिहार्य हो चला है। धरती लगातार हिल रही है। पहाड़ों में दरारें पड़ रही हैं। नदियां वैसे भी, विशेष रूप से मार्ग और प्रवाह में परिवर्तन के प्रति संवेदनशील होती हैं। भूकम्प से नदी मार्ग में परिवर्तन के विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं, जिससे संपत्ति, कृषि और बुनियादी ढांचे को भारी नुकसान पहुंच सकता है।
हाल में, जब अध्येताओं की एक टीम ने ढाका से सौ किलोमीटर दक्षिण में नदी की पुरानी मुख्यधारा खोजने के लिए सैटेलाइट चित्रों का इस्तेमाल किया तो उस इलाके में भूकम्पीय संकेत-चिह्न मिले। इस क्षेत्र में गंगा और ब्रह्मपुत्र की प्लेटें करीब होने से यहां अक्सर तेज भूकम्प आते रहे हैं। डेल्टा वाले नदी क्षेत्र में उच्च तीव्रता का भूकम्प आने पर प्रवाह का रास्ता पूरी तरह बदल सकता है। वहां तबाही इसलिए बहुत भयावह होगी, क्योंकि अब उस क्षेत्र में लाखों की घनी बसावट है।
ऐसे भी तमाम अध्ययन सामने आ चुके हैं कि कृत्रिम जलाशयों और मानव निर्मित बांधों के कारण भी भूकम्प आ सकते हैं। वैश्विक स्तर पर ऐसे नब्बे से अधिक स्थलों की पहचान हो चुकी है, जहां जलाशयों के भरने से भूकम्प आए। भारत में किलारी जलाशय लातूर के भूकम्प का कारण हो सकता है। कोयना भूकम्प अब तक का सबसे बड़ा और सबसे अधिक विनाशकारी जलाशय-ट्रिगर भूकम्प रहा है। हिमालय की तराई में 260 मीटर ऊंचे टिहरी बांध के ‘डिजाइन’ मापदंडों पर सवाल उठते रहे हैं और भूकम्प को झेलने की बांध की क्षमता को सुनिश्चित करने के लिए उसकी जांचें होती रही हैं।
मई 2008 में सिचुआन में जिपिंग्पू बांध के निर्माण के कारण आए 7.9 तीव्रता के भूकम्प ने 80 हजार लोगों की जान ले ली थी। जलाशय की गहराई सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है, लेकिन पानी का आयतन भी भूकम्प उत्पन्न करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हिमालय, दक्षिण-पश्चिम चीन, ईरान, तुर्की और चिली सहित भूकम्पीय रूप से सक्रिय क्षेत्रों में कई बांध बनाए जा रहे हैं, जिनका विरोध भी हो रहा है। अब शोधकर्ताओं की एक टीम ने ऐसी घटनाओं का माडल तैयार किया है, जिनसे होने वाले खतरों का बेहतर तरीके से आकलन किया जा सके। जलविज्ञानी गति-संवेदी उपकरणों के साथ धरातल और नदी की विशेषताओं तथा गतिविधियों, यानी कि आकार, ढलान, तलछट भार, प्रवाह दर का विश्लेषण करते रहते हैं। वे समय के साथ नदी के स्तर और निर्वहन की निगरानी के लिए स्ट्रीम गेज, सेंसर और उपग्रह डेटा का उपयोग करते हैं।
नदी के व्यवहार में परिवर्तन, जैसे कि बढ़ती गंदगी, जलस्तर, प्रवाह दर में उतार-चढ़ाव, तलछट भार में व्यवधान आदि विसंगतियों का पता लगाने के लिए वे वर्तमान डेटा की तुलना ऐतिहासिक तथ्यों से करते हैं। भूकम्पीय और जल विज्ञान संबंधी डेटा को मिलाकर संभावित प्रभावों की संभावना और गंभीरता का अनुमान लगाते हैं।
भूकम्पीय गतिविधियों और नदियों के प्रवाह पर बारीक नजर रखे हुए वैज्ञानिक लगातार ऐसे जोखिम वाले तमाम वैश्विक क्षेत्रों की पहचान करने में जुटे हैं। सब कुछ के बावजूद, किसी भूकम्प के सटीक मापदंडों या किसी भी क्षण नदी के बहाव के बारे में पूर्वानुमान लगाना असंभव है। जैसे-जैसे मानव-जनित भूकम्पों की आवृत्ति और परिमाण में वृद्धि हो रही है, शोधकर्ता सतही जल और भूजल पर उनके प्रभावों का पता लगाने में जुटे हैं। एक नए अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने पांच दशक के उपग्रह चित्रों के अध्ययन के बाद नए सुराग खोजे निकाले हैं कि नदियां कहां और क्यों अचानक अपना मार्ग बदल लेती हैं। इस दिशा में लगातार प्रयासों के बावजूद, नदियों के स्थानांतरण के बारे में कुल डेटा अभी अपर्याप्त माना गया है। जलवायु परिवर्तन से भी महाविनाशकारी बाढ़ आ सकती है और समुद्र जल-स्तर, नदी के मुहाने के पीछे हटने का कारण बन सकता है।