आज क्या हम तकनीक के ऐसे दौर में पहुंच गए हैं, जहां भरोसा शब्द ही बेमानी हो गया है? अत्याधुनिक, नित नई बदलती और उन्नत होती तकनीक के बावजूद हम ठगे जा रहे हैं। लुट-पिट कर हाथ मलते रह जाते हैं। ऐसा लगता है कि हम जितनी प्रगति कर रहे हैं, उतना ही अनजान साइबर शिकारियों के मकड़जाल में जकड़ते जा रहे हैं। तमाम डिजिटल मंच साइबर विश्वास को लगातार तोड़ रहे हैं। डिजिटल या सोशल मीडिया मंचों पर निगाह गड़ाए, साइबर अपराधियों के अनजान चेहरे कुछ इसी अंदाज में धोखा देते हैं। हर पल लोग इनका शिकार होते हैं। कितने लोग कहां-कहां साइबर अपराधियों की गिरफ्त में आए, इसकी सही जानकारी कभी सामने नहीं आ पाती। कई बार शिकार हुए लोगों को ही जानकारी नहीं हो पाती कि उन्हें न्याय के लिए कहां दरवाजा खटखटाना है। साइबर अपराधी एक से एक नई तरकीबें अपनाते हैं। इनके शिकार पढ़े-लिखे लोग भी होते हैं।
मगर अब सबसे ज्यादा चिंता ‘साइबरबुलिंग’ की है। इसका शिकार बड़ी संख्या में बच्चे हो रहे हैं। ‘साइबरबुलिंग’ इंटरनेट से होने वाला वह शोषण है, जिसमें किसी को धमकी देने, उसके खिलाफ अफवाहें फैलाने, भद्दी टिप्पणियां करने, घृणा भरी बातें कहने, अश्लील भाषा और तस्वीरों का उपयोग कर डराने, धमकाने और आतंकित करने जैसे अवांछित कृत्य शामिल हैं। वहीं ‘आनलाइन गेमिंग’ के जंजाल में फंसाकर रुपए ऐंठने जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं। जैसे-जैसे तकनीक का उपयोग बढ़ रहा है, वैसे-वैसे खतरे भी बेहिसाब बढ़ते जा रहे हैं। डिजिटल संसार में बच्चों, बड़ों सबकी सुरक्षा को लेकर दिनों-दिन चिंता बढ़ रही है। चिंताजनक है कि आज हर छह में से एक बच्चा ‘साइबरबुलिंग’ का शिकार हो रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्लूएचओ की इस मसले पर आई एक रपट बताती है कि ग्यारह से पंद्रह वर्ष उम्र के लगभग सोलह फीसद बच्चे कहीं न कहीं इस चक्रव्यूह का सामना कर चुके हैं।
सच्चाई यह है कि कोविड-19 महामारी के दौरान, आभासी दुनिया के उस दौर ने गति पकड़ी, जिसे वरदान समझ कर अभिभावकों ने छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में स्क्रीन वाले उपकरण पकड़ा दिए। अनजाने ही बच्चे, बड़े, बूढ़ों को इसकी ऐसी लत लगी जो किसी नशे से कम नहीं। पूर्णबंदी में शिक्षा को डिजिटल मंच पर ले जाने की मजबूरी की समूची दुनिया अब बहुत बड़ी कीमत चुका रही है। यों ‘साइबरबुलिंग’ पर दशक भर पहले से चिंताएं जताई जा रही हैं। मगर पूर्णबंदी के बाद इसके खतरे बेतहाशा बढ़ने लगे। स्मार्टफोन, कंप्यूटर, टैबलेट और गेमिंग इसके औजार बनते गए। देखते ही देखते आनलाइन संसार बच्चों के लिए विशेषकर अत्यधिक असुरक्षित होता गया।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रपट बताती है कि वर्ष 2022 में दुनिया के चौवालीस देशों में ग्यारह से पंद्रह वर्ष उम्र के सोलह फीसद बच्चों और किशोरों ने किसी न किसी रूप में ‘साइबरबुलिंग’ का सामना किया। कोरोना के पहले यानी 2018 में यह करीब तेरह फीसद था। यह वृद्धि निश्चित ही अत्यंत चिंताजनक है। आंकड़े बताते हैं कि बुल्गारिया, लिथुआनिया, मोल्डोवा और पोलैंड जैसे देशों में सबसे ज्यादा ‘साइबरबुलिंग’ हुई। इसी रपट में बताया गया कि बच्चे और किशोर प्रतिदिन लगभग छह-सात घंटे आनलाइन बिताते हैं।
ऐसे में ‘साइबरबुलिंग’ और हिंसा के स्तर में छोटा-सा भी बदलाव इसमें फंसे हजारों किशोरों के स्वास्थ्य के लिए चिंता का कारण बन सकता है और बना भी। 2022 में एक कंप्यूटर सुरक्षा कंपनी की ‘साइबरबुलिंग’ पर आई रपट के मुताबिक भारत में 85 फीसद बच्चे किसी न किसी रूप में साइबरबुलिंग का सामना करते हैं। इनमें 42 फीसद नस्लवादी, 36 फीसद ट्रोलिंग, 30 फीसद यौन उत्पीड़न, 28 फीसद धमकी और 23 फीसद झूठी, अश्लील या भद्दी डराने वाली जानकारियां सार्वजनिक करने की धमकियों का शिकार बनते हैं।
अब ऐसी कई घटनाएं सामने आ रही हैं जिनमें कृत्रिम मेधा यानी एआइ तकनीक के नए-नए प्रयोगों से हूबहू आवाजें बनाकर अभिभावकों या दूसरों को झूठे घृणित मामलों में फंसा कर हजारों रुपए ऐंठ लिए जाते हैं। अब ऐसे उपकरण आ गए हैं जिनमें ऐसे ‘टूल’ होते हैं जो किसी की आवाज और वीडियो का नमूना लेकर ठीक उसी आवाज में बोलने के साथ ऐसा डीपफेक वीडियो बना सकते हैं, जिसमें असली-नकली की पहचान कर पाना आसान नहीं होता। कुछ सप्ताह पहले हांगकांग में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी डीपफेक तकनीक का शिकार हो गई, जिसमें 2.5 करोड़ डालर की लूट हुई। आनलाइन धोखाधड़ी का ऐसा तरीका पहली बार सामने आया। इसमें वीडियो कांफ्रेंस काल में डीपफेक तकनीक से कंपनी के मुख्य वित्तीय अधिकारी सहित अन्य अधिकारी और सभी कर्मचारी नकली थे।
फर्जी वीडियो कांफ्रेंस काल में दूसरी ओर बैठा कंपनी का हांगकांग दफ्तर समझ ही नहीं पाया कि वीडियो में दिख रहे लोग बिल्कुल नकली हैं। संभवत: यह विश्व का पहला मामला था जहां एक कंपनी शिकार हुई। ब्रिटेन से की गई फर्जी वीडियो काल में हांगकांग दफ्तर वाले ने बिल्कुल असली दिख रहे नकली चेहरों के झांसे में आकर रकम अंतरित कर दिया। इसमें फर्जीवाड़ा ‘फेशिअल रिकग्निशन प्रोग्राम’ का इस्तेमाल कर हुआ।
जिस तेजी से बच्चे, बड़े, महिला-पुरुष सभी ‘साइबरबुलिंग’ का शिकार हो रहे हैं, वह चिंताजनक है। साइबरबुलिंग के हर शिकार पर विशेष ध्यान देना होगा। समझना होगा कि पीड़ितों के व्यवहार में परिवर्तन, चिड़चिड़ाना, हिंसक या आक्रामक शैली अपनाना, लहजे में बदलाव, कहीं शिकार होने का इशारा तो नहीं? ध्यान देना होगा कि सामने वाले का बार-बार मोबाइल या ऐसे दूसरे उपकरण खोलना-बंद करना, अकेले में देखना, कहीं कोई कारण तो नहीं? समझ आने पर, ऐसे प्रभावित को सबसे पहले विश्वास में लें, फिर समझाएं, हिम्मत दें, बताएं कि सब साथ हैं। जरूरत होने पर बड़ों, विश्वसनीयों, पुलिस और बच्चे की स्थिति स्कूल प्रबंधन को भी बताएं ताकि सब मिलकर उपयुक्त रास्ता ढूंढ़ें और दूसरों को शिकार होने से बचाएं।
जिस उपकरण में धमकी भरे संदेश आएं उसे तुरंत बंद करवाएं। साइबर हमलावरों को नजरअंदाज करें। अपराधियों को प्रतिक्रिया न दें। जिन सोशल साइटों से धमकी भरे संदेश मिलें, उन्हें तुरंत सूची से हटा दें। धमकी भरे संदेशों को सहेजें और प्रिंट कर लें ताकि आगे भी उत्पीड़न जारी रहने पर कानूनी कार्रवाई में काम आएं। पीड़ित को विश्वास में लेकर पूरी बात समझें। बजाय नाराज होने के, उसे साहस, सहारा देकर डर और घबराहट से बाहर निकालें। निश्चित रूप से ‘साइबरबुलिंग’ नए दौर का वह छिपा शैतान है, जो अपने शिकार को सताता भी है, डराता भी है, लूटता भी है और जान लेने से भी नहीं हिचकता। लेकिन ध्यान रखें कि सिर्फ उन्हीं को जो डर जाते हैं। इसलिए अनजाने काल, अपनों के असहज करने वाले वाइस या वीडियो काल पर एकाएक भरोसा न कर पहले जांचें, परखें अपनों से समझें तब विश्वास करें। अनजानी साइटों, लिंक और अनुरोधों से बचें और फरेबियों की साजिश भरी दुनिया का शिकार न बनें।