कहने को तो दुनिया आधुनिक हो चुकी है, लेकिन सामाजिक मूल्यों का पतन साफ देखा जा सकता है। दुनिया में एक तरफ जहां अन्न की बर्बादी अपने चरम पर पहुंच गई है, तो दूसरी तरफ भूख और कुपोषण गंभीर समस्या बनती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष की ताजा रपट के मुताबिक दुनिया में पांच वर्ष से कम आयु के 27 फीसद यानी करीब 18 करोड़ बच्चे गंभीर खाद्य संकट का सामना कर रहे हैं। पर्याप्त भोजन की कमी से बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो पा रहा है। दुनिया का हर चार में से एक बच्चा युद्ध, वैश्विक अशांति, असमानता, गरीबी और जलवायु संकट की वजह से गंभीर खाद्य संकट का सामना कर रहा है। हाल ही में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के महानिदेशक गिल्बर्ट हुंगबो ने कहा कि भूख मिटाने के लिए दुनिया भर में करोड़ों बच्चों को स्कूल के बजाय मजदूरी के लिए भेजा जा रहा है। यहां तक कि उन्हें गलत कामों के लिए भी मजबूर किया जा रहा है। दुनिया के लगभग सोलह करोड़ बच्चे ऐसे हालात में संघर्ष कर रहे हैं।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की ‘खाद्य बर्बादी सूचकांक-2024’ रपट के अनुसार पिछले एक वर्ष में 1.05 अरब टन भोजन बर्बाद हो गया, जिसमें से करीब बीस फीसद खाद्य कूड़े में फेंक दिया गया। बाजार में उपलब्ध खाद्य उत्पादों का लगभग पांचवां हिस्सा बर्बाद कर दिया जा रहा है। वहीं संयुक्त राष्ट्र की एक रपट के मुताबिक प्रति वर्ष सबसे ज्यादा 63.1 करोड़ टन यानी लगभग 60 फीसद भोजन घरों में बर्बाद चला जा रहा है। एक तरफ जहां लाखों लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं, वहीं दुनिया के संपन्न परिवारों में हर व्यक्ति दो कुंतल भोजन हर वर्ष बर्बाद कर रहा है। अन्न की यह बर्बादी अब वैश्विक त्रासदी बनती जा रही है। यहां तक कि जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के नुकसान का भी सबब बन रही है। भोजन की यह बर्बादी संपन्न ही नहीं, पिछड़े देशों में भी समान रूप से देखी जा सकती है। उच्च, उच्च मध्यम और निम्न मध्यम आय वाले देशों के बीच प्रति व्यक्ति वार्षिक खाद्य अपशिष्ट दर में केवल सात किलोग्राम का फर्क देखा गया है, लेकिन शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच इस बर्बादी की मात्रा बहुत अलग है। मध्यम आय वाले देशों में ग्रामीण आबादी अपेक्षाकृत कम भोजन बर्बाद करती है। संयुक्त राष्ट्र की कोशिश है कि भोजन की बर्बादी 2030 तक पचास फीसद कम की जाए।

अकेले भारत में 68 लाख बच्चे भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। यह संख्या सूडान, माली जैसे देशों से भी ज्यादा है। वैश्विक भुखमरी सूचकांक-2023 के मुताबिक, इस त्रासदी की जद में काम पर जाने वाले बच्चे और किशोर ही नहीं, बल्कि उनमें 6 से 11 माह के 30 फीसद, 12 से 17 माह के 13 फीसद और 18 से 23 माह के 18 फीसद शिशु भी शुमार हैं। इस बीच हमारे देश में अल्प-पोषण व्यापकता 14.6 फीसद से बढ़ कर 16.3 फीसद हो चुकी है। ऐसे में कुपोषित बच्चों की निगरानी और उन्हें इस जटिल हालात से उबारने के लिए कोई व्यापक नीति बनाना भी सरकारों के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण हो चुका है। आंकड़ों के मुताबिक, हमारे देश में लगभग 60 फीसद बच्चे दुग्ध आदि पोषक आहार से वंचित रह जाते हैं। संविधान का अनुच्छेद 21 सभी को निर्बाध जीवन जीने की आजादी देता है। बच्चे किसी भी देश का भविष्य होते हैं। इसके लिए संविधान बच्चों को कई अधिकार भी देता है। पर बच्चे वोटबैंक की राजनीति का हिस्सा नहीं होते हैं, शायद इसीलिए बच्चे सरकार की प्राथमिकता में नहीं आते हैं और न ही उनके लिए बनाई गई नीतियों का उचित तरीके से क्रियान्वयन किया जाता है।

भुखमरी और कुपोषण की सबसे बड़ी वजह आर्थिक असमानता, निर्धनता और महंगाई है। आज आबादी का एक बड़ा हिस्सा खाद्य पदार्थ और स्वच्छ पेयजल से वंचित होता जा रहा है। इसकी बड़ी वजह सरकारी योजनाओं और नीतियों का समुचित क्रियान्वयन न हो पाना है। विश्व में युद्ध और सूखा, बाढ़, भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं ने भी इसे जटिल बना दिया है। कृषि गतिविधियां छिन्न-भिन्न हो रही हैं। खाद्य उत्पादन का असमान वितरण हो रहा है। भारत में गरीबी और बालश्रम के खतरनाक नतीजे बच्चों के शोषण के रूप में सामने आ रहे हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद से दुनिया में गेहूं का सरकारी भंडारण कम हो रहा है। भारत में ही पिछले एक साल में गेहूं का दाम आठ फीसद तक बढ़ गया है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में अनाज की पर्याप्त खरीदी नहीं हो पा रही है, जबकि सरकार मुफ्त अनाज योजना, बीपीएल धारकों को कम कीमत पर अनाज उपलब्ध कराने की योजना चला रही है। ऐसे में यह भूख देश और समाज के लिए काफी महंगी पड़ने वाली है।

एक रपट के मुताबिक 2022 के मुकाबले 2023 में दो करोड़ चालीस लाख लोगों ने भुखमरी का सामना किया। इसके पीछे बड़ी वजह सूडान और गाजा जैसे क्षेत्रों में खाद्य सुरक्षा में आई भारी गिरावट है। जो देश युद्ध और संघर्ष की मार झेल रहे हैं वहां भुखमरी से हालात बिगड़ते जा रहे हैं। दक्षिण सूडान में करीब उन्यासी हजार लोग ऐसे हैं, जो भुखमरी के पांचवे चरण में पहुंच गए हैं। जलवायु परिवर्तन भी भुखमरी बढ़ाने में अहम भूमिका निभा रहा है। अल-नीनो 2024 में अपने चरम पर है, जिसका सीधा प्रभाव खाद्य सुरक्षा पर पड़ा है। इसके कारण पूर्वी और दक्षिण अफ्रीका में कम बारिश और बाढ़ जैसे हालात पैदा हुए। अल-नीनो दक्षिण अफ्रीका में आए भयंकर सूखे की एक बड़ी वजह रहा है। अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन आक्सफैम की एक रपट के अनुसार इस सूखे के कारण इस इलाके में दो करोड़ चालीस लाख लोगों को भुखमरी, पानी की कमी और कुपोषण का सामना करना पड़ा।

सीधी-सी बात है कि भूख की कोई सीमा, कोई सरहद नहीं होती है। यह बच्चों पर भी कोई रहम नहीं करती। दुनिया में हर पांच में से एक बच्चा कुपोषण का शिकार है। इसका अर्थ है कि बच्चों को उचित आहार नहीं मिल पा रहा। यह सिर्फ स्वास्थ्य संकट नहीं, बल्कि संकेत है कि हम अपने समाज और मानवता के प्रति कर्तव्यों को निभाने में विफल हो रहे हैं। बच्चे भूख से बिलख रहे हैं, तो यह माता-पिता नहीं बल्कि व्यवस्था की विफलता है। बच्चों को भूख से बचाना है तो सभी देशों को साथ मिलकर प्रयास करने होंगे। बच्चे स्वस्थ समाज की नींव हैं। जब नींव ही कमजोर हो जाएगी तो फिर समाज कैसे आगे बढ़ेगा। एक तरफ तो दुनिया भर में अर्थव्यवस्था के चमकते आंकड़े विकास और तरक्की के बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं, जबकि दूसरी तरफ 78.3 करोड़ लोगों को तो यह तक खबर नहीं कि उनको अगला भोजन मिलेगा भी या नहीं। यह कैसा विकास है!