भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह दिल्ली विधानसभा चुनाव के मद्देनजर नए चेहरों को आगे लाना शुरू किया है, उस पर स्वाभाविक ही पार्टी के भीतर और बाहर सवाल उठने लगे हैं। पहले भाजपा कहती थी कि मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार को आगे करके चुनाव लड़ना उसकी नीति के विरुद्ध है।

जब किरण बेदी को धूमधाम से पार्टी में शामिल किया गया तब भी पार्टी अध्यक्ष और दूसरे वरिष्ठ नेता यही कहते रहे कि मुख्यमंत्री पद के लिए नाम का निर्णय संसदीय दल करेगा। मगर बेदी को आए पांच ही दिन हुए थे कि उन्हें दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में पेश कर दिया गया। बेदी को लेकर जगदीश मुखी जैसे वरिष्ठ नेता पहले से खुला एतराज जता रहे थे, उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने से दूसरे नेता भी नाराज दिखने लगे हैं। इसके अलावा कई नेता आम आदमी पार्टी और कांग्रेस छोड़ कर आए हैं और भाजपा ने न सिर्फ उनका धूमधाम से स्वागत किया, बल्कि अपने पुराने नेताओं को किनारे करके उन्हें चुनाव मैदान में भी उतार दिया। छिपी बात नहीं है कि इनमें से कोई ऐसा नेता नहीं है, जो भाजपा के विचारों या उसके हिंदुत्व, राम मंदिर और धारा तीन सौ सत्तर जैसे घोषित एजेंडे से इत्तफाक रखता हो।

सबका मकसद सिर्फ भाजपा की हवा को देखते हुए चुनाव के जरिए अपनी जगह सुरक्षित करना है। पता नहीं, भाजपा अध्यक्ष के इस फैसले को संघ ने किस तरह या किस हद तक स्वीकार किया है। इस पर भाजपा अपने अंदरूनी झगड़ों से कैसे निपटती है, यह उसका मामला है, मगर इस हड़बड़ी से एक बात साफ हो गई है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव को लेकर उसमें लोकसभा चुनाव जैसा आत्मविश्वास नहीं रह गया है। नरेंद्र मोदी को आगे करके चुनाव लड़ने का उसका भरोसा डिग चुका है।

अब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की दलील है कि हर सदस्य किसी समय पार्टी में बाहरी और नया होता है, इसलिए इस विषय को तूल नहीं दिया जाना चाहिए। शायद इसी तर्क से लोकसभा चुनाव के वक्त भी ढेर दलबदलू और मौकापरस्त नेताओं को सिर आंखों पर बिठाया गया था। तो क्या इसका यह अर्थ निकाला जाना चाहिए कि अब भाजपा ने अपना रुख बदल लिया है। उसका हृदय परिवर्तन हो चुका है!

क्या उसने उन ‘मूल्यों’ को तिलांजलि दे दी है, जिन पर उसका विकास हुआ। या यह सिर्फ दिल्ली विधानसभा चुनाव को देखते हुए एक तरह की मौकापरस्ती है। यों उसकी इस हड़बड़ी की कुछ वजहें समझी जा सकती हैं। रामलीला मैदान में हुई नरेंद्र मोदी की रैली के समय ही काफी हद तक जाहिर हो गया था कि अब लोगों में भाजपा को लेकर पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया है। फिर जिस तरह भाजपा लगातार केवल आम आदमी पार्टी को लेकर निशाने साध रही है, उससे भी जाहिर हो रहा है कि उसकी चुनौती किससे है।

किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने को लेकर उसकी जल्दबाजी से भी प्रकट है कि इस समय उसकी प्राथमिकता सिर्फ आम आदमी पार्टी के जनाधार में सेंध लगाने की है। स्वाभाविक ही कहा जाने लगा है कि भाजपा के पास कद्दावर नेताओं की कमी थी, इसलिए वह बाहरी लोगों की क्षमता पर अधिक भरोसा जता रही है। इस तरह शायद भाजपा को कुछ कामयाबी मिल भी जाए, पर आगे का रास्ता उसके लिए आसान नहीं कहा जा सकता। भाजपा अध्यक्ष और दूसरे वरिष्ठ नेता चुनाव में नाकामी का ठीकरा इतनी ही आसानी से बाहरी नेताओं के सिर फोड़ कर अपना दामन नहीं बचा सकते।

 

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