बिहार विधानसभा चुनाव के लिए सभी दलों ने अपने उम्मीदवारों के नामों का ऐलान करना शुरू कर दिया है। लोकतंत्र के इस उत्सव के पहले चरण के मतदान के लिए सभी दलों ने पहली लिस्ट जारी कर दी है। हमेशा की तरह इस बार भी महिलाओं को पर्याप्त संख्या में टिकट नहीं देने और उनकी उम्मीदवारी पर विचार नहीं करने के आरोप लगने शुरू हो गए हैं। आधी आबादी के साथ भेदभाव को लेकर तमाम दलों की महिला नेताओं ने अपनी नाराजगी जताते हुए इसे लोकतंत्र में अनुचित बताया है। लोक जनशक्ति पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष संगीता तिवारी कहती हैं कि बिहार विधानसभा की 243 सीटों पर हो रहे चुनाव में आधी आबादी का वोट तो सभी राजनीतिक दलों को चाहिए, मगर उनको टिकट देने में सभी दल कंजूसी बरत रहे हैं। विधानसभा और लोकसभा चुनाव में 33 फीसदी आरक्षण की बात वे भूल जाते हैं। इससे महिलाएं अपने को ठगी सी महसूस करती हैं।

नौगछिया से भागलपुर ज़िला परिषद सदस्य नंदनी सरकार कहती हैं कि महिलाएं स्थानीय निकाय या पंचायत स्तर तक ही सीमित क्यों रहे? पंचायत स्तर की बात छोड़ दे तो लोकसभा व विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम है। निवर्तमान विधानसभा के 243 सदस्यों में केवल 28 महिलाएं ही सदस्य थी।

2015 में राजद की दस महिला उम्मीदवार चुनाव लड़ी और सभी सफल हुई। जदयू की दस में से आठ प्रत्याशी को कामयाबी मिली। वहीं कांग्रेस की पांच महिला उम्मीदवारों में से चार ने बाजी मारी। मगर भाजपा की 14 महिला उम्मीदवारों में से केवल चार ही जीत सकीं। एक महिला निर्दलीय विधायक बनी। इस दफा राजनीतिक दल कितनी महिलाओं को अपना उम्मीदवार बनाते हैं और कितनी सफल हो विधानसभा पहुंचती हैं, इसका पता 10 नवंबर को ही चलेगा। हालांकि टिकट वितरण में कंजूसी साफ नजर आ रही है।

आंकड़े बताते है कि महिला विधायक की तादाद में इजाफे की बजाए कमी आई है। 1957 में अविभाजित बिहार में हुए चुनाव में 30 महिलाएं विधानसभा जीतकर पहुंची थीं। 1962 में यह संख्या 25 हो गई, जबकि 1967 में छह और 1969 में संख्या चार ही रह गई। साल 2000 तक महिला विधायकों की संख्या 20 से कम ही रही। बिहार का विभाजन सन 2000 में हुआ। इसके बाद बिहार का चुनाव 2005 में हुआ। इसमें केवल तीन महिलाओं को ही विजयश्री मिल सकी।

जदयू के प्रदेश महासचिव विभूति गोस्वामी कहते है कि नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद आधी आबादी को खास तवज्जो मिला। इसके बाद से ही महिला विधायकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई। 2010 चुनाव में 25 और 2015 विधानसभा चुनाव में 28 महिला उम्मीदवार को कामयाबी मिली। मसलन 2005 से अब तक महिलाओं के लिए नीतीश कुमार के नेतृत्व में काफी काम हुए।

महागठबंधन में रहते हुए 2016 में जीविका दीदियों की मांग पर राज्य में पूर्ण शराबबंदी लागू की। दहेज प्रथा और बाल विवाह को सामाजिक बुराई बताते हुए रोक लगाने के वास्ते कानून बनाया। स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव में 50 फीसदी महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान किया। राज्य की सरकारी नौकरियों में 35 फीसदी आरक्षण महिलाओं के लिए लागू किया। गोस्वामी कहते है कि इसी तरह ठोस तरीके से महिला सशक्तिकरण के काम हुए। महिलाओं में स्थानीय स्तर पर ताकत का एहसास हुआ।

संगीता तिवारी कहती हैं कि यह अलग बात है कि दलित, मुस्लिम, पिछड़ा और महिला सभी राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणा-पत्र का मुख्य अंश होता है, मगर चुनाव और चुनाव के बाद इस पर अमल करने में ईमानदारी नहीं दिखती है। लोकसभा और विधानसभा में महिला सदस्यों की कमी काफी खलती है। वहां महिलाओं के हक व अधिकार की बात दब जाती है। ऐसे में 33 फीसदी आरक्षण लागू होना चाहिए।