पिछले दिनों निर्वाचन आयोग ने राजनीतिक दलों को चुनाव प्रचार में बच्चों और नाबालिगों को शामिल न करने के निर्देश दिए। आयोग ने सख्त हिदायत देते हुए कहा कि आम चुनाव में प्रचार के पर्चे बांटते हुए, पोस्टर चिपकाते हुए, नारे लगाते हुए या पार्टी के झंडे-बैनर लेकर चलते हुए बच्चे या नाबालिग नहीं दिखने चाहिए। आयोग ने कहा कि किसी भी तरीके से बच्चों को राजनीतिक अभियान में शामिल करना, जिसमें कविता पाठ करना, गीत, नारे या बच्चों द्वारा बोले गए शब्द या फिर उनके द्वारा किसी भी राजनीतिक पार्टी या उम्मीदवार के प्रतीक चिह्नों का प्रदर्शन करना दंडनीय होगा। अगर कोई भी दल अपने प्रचार में बच्चों को शामिल करता पाया गया, तो बालश्रम से संबंधित कानूनों के तहत उसके खिलाफ कार्रवाई होगी।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस प्रगतिशील दौर में भी बालश्रम के मुद्दे पर हम प्राय: मौन हैं। सवाल है कि क्या आजादी के अमृतकाल में हम बालश्रम के मुद्दे पर कोई ठोस पहल कर पाएंगे? यूनिसेफ की एक रपट के अनुसार भारत में हर दस श्रमिक में से एक श्रमिक बच्चा है। बालश्रम निवारण के लिए बने विभिन्न कानूनों के अतिरिक्त 2009 में बने ‘शिक्षा का अधिकार’ कानून के तहत भी बालश्रम को बढ़ावा देने वाले लोगों के खिलाफ दंड का प्रावधान है। ‘शिक्षा का अधिकार’ कानून के तहत बच्चों को अपनी शिक्षा पूरी करने का अधिकार दिया गया है, ताकि वे बालश्रम से दूर रह कर अपनी इच्छा के अनुसार भविष्य चुन सकें। इसके बावजूद ग्रामीण और शहरी इलाकों में बालश्रम को लगातार बढ़ावा दिया जा रहा है। अनेक जगहों पर अब भी छोटी बच्चियों को घरेलू सहायिका के रूप में काम पर रखा जाता है, तो छोटे बच्चों से दुकानों, खेतों और अन्य स्थानों पर काम कराया जाता है।
एक रपट के अनुसार पूरे विश्व में 15.2 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक के रूप में काम कर रहे हैं, जिनमें से 7.3 फीसद बच्चे केवल भारत में बाल श्रमिक के रूप में कार्यरत हैं। विडंबना यह है कि कोरोना काल ने बाल श्रमिकों को एक बड़े खतरे में डाल दिया है। संयुक्त राष्ट्र चाहता है कि शीघ्र ही पूरे विश्व में बालश्रम समाप्त हो जाए, लेकिन इस संबंध में मनुष्य के खोखले आदर्शवाद और संकुचित मानसिकता के कारण यह संभव नहीं लगता। कुल मिलाकर आज विभिन्न तौर-तरीकों से बचपन पर खतरा मंडरा रहा है।
बालश्रम के कारण आज अनेक बच्चे कुपोषण और विभिन्न बीमारियों से जूझ रहे हैं। अक्सर हम बालश्रम का अर्थ बहुत ही सीमित संदर्भ में लगाते हैं। जबकि अगर बच्चों के दिमाग पर किसी भी रूप में कोई दुष्प्रभाव पड़ रहा है और उनके दिमाग को परंपरागत श्रम से अलग श्रम करना पड़ रहा है, तो वह भी एक तरह का बालश्रम ही है। दुखद यह है कि हम इस परंपरागत बालश्रम पर तो ध्यान देते हैं, लेकिन अपरंपरागत बालश्रम पर ध्यान नहीं देते हैं। कुछ वर्ष पहले ‘सेंटर फार एडवोकेसी एंड रिसर्च’ द्वारा जारी एक रपट में बताया गया था कि टीवी पर दिखाई जाने वाली हिंसा का भी बच्चों के दिलो-दिमाग पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। रपट में बताया गया था कि आज अनेक ऐसे बच्चे हैं, जो भूत और किसी अन्य भटकती आत्मा के भय से प्रताड़ना की जिंदगी जी रहे हैं।
‘सेंटर फार एडवोकेसी एंड रिसर्च’ ने बच्चों पर मीडिया के कुप्रभाव का व्यापक सर्वेक्षण कराया था। पांच शहरों में कराए गए इस सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष सामने आया था कि हिंसा और भय वाले कार्यक्रमों के कारण बच्चों के दिलो-दिमाग पर गहरा असर पड़ रहा है। शोधकर्ताओं का मानना है कि ऐसे कार्यक्रमों से बच्चों पर गहरा भावनात्मक असर पड़ता है, जो आगे चलकर उनके भविष्य के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। इस सर्वेक्षण में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि पचहत्तर फीसद टीवी कार्यक्रम ऐसे हैं, जिनमें किसी न किसी तरह की हिंसा जरूर दिखाई जाती है। इन कार्यक्रमों से बच्चों पर गहरा मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक असर पड़ता है। रहस्य, रोमांच, भयावह कार्यक्रम और ‘सोप ओपेरा’ देखने वाले बच्चे जटिल मनोवैज्ञानिक समस्याओं से प्रभावित हो जाते हैं।
इस समय भारत समेत दुनिया भर के बच्चों पर अनेक तरह के खतरे मंडरा रहे हैं। विडंबना यह है कि अब जलवायु परिवर्तन भी बच्चों को अपना शिकार बना रहा है। पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी एक रपट के अनुसार दुनिया के 2.3 अरब बच्चों में से लगभग 69 करोड़ बच्चे जलवायु परिवर्तन के सबसे अधिक जोखिम वाले क्षेत्रों में रहते हैं, जिसके चलते उन्हें उच्च मृत्यु दर, गरीबी और बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है। लगभग 53 करोड़ बच्चे बाढ़ और उष्णकटिबंधीय तूफानों से सर्वाधिक प्रभावित देशों में रहते हैं। गौरतलब है कि इनमें से ज्यादातर देश एशिया में हैं। करीब 16 करोड़ बच्चे सूखे से गंभीर रूप से प्रभावित क्षेत्रों में पल-बढ़ रहे हैं। इन क्षेत्रों में से ज्यादातर अफ्रीका में हैं।
एक अध्ययन में जलवायु परिवर्तन और बच्चों में कुपोषण के अंतर्संबंधों पर भी शोध हुआ है। पहले कुपोषण का अर्थ शरीर में पोषक तत्त्वों की कमी होना माना जाता था, लेकिन इस दौर में कुपोषण के अर्थ बदल गए हैं। अब ज्यादा या कम वजन होने का अर्थ भी कुपोषण ही है। यूनिसेफ की एक रपट के अनुसार दुनिया भर में करीब सत्तर करोड़ बच्चे कुपोषण की चपेट में हैं। यह जरूर है कि वैश्विक स्तर पर कुपोषित बच्चों की संख्या में पहले की अपेक्षा कमी आई है, लेकिन ‘लांसेट’ पत्रिका की एक रपट में जलवायु परिवर्तन के कारण भविष्य में कुपोषण की स्थिति और खतरनाक होने की संभावना व्यक्त की गई है।
बीमारी के साथ-साथ ऐसे अनेक कारण हैं, जिनके चलते बीमार बच्चों का समय से ठीक होना संभव नहीं हो पाता। कई बार ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाएं भी ठीक ढंग से उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। दूसरी तरफ, पिछड़े इलाकों में स्वच्छ पेयजल और साफ-सफाई का भी अभाव रहता है। जलवायु परिवर्तन इन्हीं सब कारकों को बढ़ा कर बच्चों के लिए अनेक समस्याएं पैदा करता है।
गौरतलब है कि आज की महानगरीय जीवन-शैली में माता और पिता दोनों ही अपने-अपने कामों में व्यस्त रहते हैं, ऐसे में भी बच्चों की उचित और संपूर्ण देखभाल प्रभावित होती है। बहुत सारे परिवारों में बच्चों को आया या नौकर के सहारे छोड़ दिया जाता है। दरअसल, इस बदलते माहौल और गलाकाट प्रतिस्पर्धा के वातावरण में ढलने के लिए बच्चा जिस तरह से संघर्ष कर रहा है, वह भी बालश्रम ही है। बहरहाल, आज जरूरत इस बात की है कि हम बालश्रम के अर्थ को व्यापक रूप से ग्रहण करें। इस प्रगतिशील दौर में हम बालश्रम का पुराना अर्थ ही ग्रहण कर रहे हैं। बालश्रम के विभिन्न स्वरूपों पर बात करके ही हम सच्चे अर्थों में बचपन बचा सकते हैं।