युवाओं को ही नहीं, बुजुर्गों तक को प्रेरित किया जाने लगता है कि वे अपने ‘प्रेम’ को क्या उपहार दें, उन्हें कहां घुमाने ले जाएं, क्या खिलाएं, कैसे उत्सव मनाएं। जगह-जगह जलसे आयोजित किए जाने लगते हैं। पूरा हफ्ता प्रेम दिवस के अलग-अलग अवसरों के रूप में मनाया जाता है। अब प्रेम दिवस एक स्वीकृत उत्सव है। मगर इसी धूम-धड़ाके के बीच ये सवाल तन कर खड़ा रहते हैं कि आखिर अब संबंधों में प्रेम बचा कितना है, प्रेम की कोमलता, प्रेम की ऊष्मा बची कितनी है। प्रेम दिवस के मौके पर इन्हीं सवालों के उत्तर तलाशने का प्रयास कर रही हैं क्षमा शर्मा।
वेलेंटाइन डे के संदेश अभी से आने लगे हैं। बाजार भी तैयार हो रहा है। बताया जा रहा है कि प्यार को प्रदर्शित करने के लिए लोग क्या-क्या कर रहे हैं। सुझाव दिए जा रहे हैं कि फूल यहां से खरीदें। कपड़े यहां से। जेवर यहां से। हीरा यहां से। अपने साथी को इस होटल, उस रेस्तरां में खिलाएं। चाहें तो जश्न की योजना अभी से बना लें। खुद भी खाएं, दूसरों को भी खिलाएं। अपने प्यार का उत्सव मनाने का यह मौका हाथ से न जाने दें।
घूमने के लिए ये-ये जगहें हैं। आप न ढूंढ़ पा रहे हों, तो हमें बताएं। हम होटल, रिसार्ट से लेकर आने-जाने, घूमने सबका प्रबंध कर देंगे। क्यों न ‘वर्ल्ड टूर’ प्लान कर लें। अपने परिवार को भी साथ ले जाएं। हवाई सेवाएं भी प्यार के इस दिन को मनाने के लिए भारी छूट दे रही हैं। क्यों न इस मौके का लाभ उठाएं।
वेलेंटाइन डे का शोर अपने यहां दो दशक से ज्यादा पुराना है। उन दिनों अखबारों में बड़े-बड़े परिशिष्ट निकलते थे। उनमें लड़के-लड़कियां अपने-अपने साथियों को संदेश भेजते थे। आमतौर पर ये पन्ने गुलाबी रंग से भरे होते थे। तभी अमिताभ बच्चन और हेमामालिनी अभिनीत फिल्म ‘बागबान’ आई थी। उसमें अमिताभ ने अपनी पत्नी की भूमिका में उपस्थित हेमा के लिए गाना गाया था- ‘यू आर माई वेलेंटाइन’। बीस-बाईस साल पुरानी वह पीढ़ी अब उस ओर अग्रसर है, जहां उसके बच्चे वेलेंटाइन मनाने के बारे में सोच रहे होंगे।
शुरुआत में इस दिवस का विरोध हुआ था। कहा गया था कि यह तो घोर पश्चिमी है। अपने यहां तो वसंत और मदनोत्सव पहले से हैं। मगर हम जानते हैं कि अपने-अपने व्यापारिक कारणों से मीडिया में ऐसी चीजें बहुत जल्दी छा जाती हैं। मीडिया रात-दिन इन्हें गाता-बजाता है और देखते-देखते ये चीजें लोकप्रिय हो जाती हैं। उनके बाल-बच्चे भी देखादेखी इन चीजों में भाग लेते हैं, जो विरोध के झंडे लहरा रहे थे।
खैर, वेलेंटाइन डे अब महानगरों तक ही सीमित नहीं है। दूर-दराज के गांवों तक यह जा पहुंचा है। जोड़े तरह-तरह से इस दिन को मनाने लगे हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत में वेलेंटाइन का बाजार बाईस हजार करोड़ रुपए तक जा पहुंचा है। इससे पता चलता है कि समय के साथ देखते-देखते विरोध भी गायब हो जाता है। या यों कहें कि जिसका ज्यादा विरोध होता है, वह उतना ही लोकप्रिय होता है।
एक तरफ तो प्रेम को दिखाने, बताने की इतनी उतावली है कि इस दिन और वेलेंटाइन सप्ताह के आसपास लगभग सारे होटल, रेस्तरां भर जाते हैं। बाजार में युवा खरीददार उमड़ पड़ते हैं। कहते हैं कि इस दौरान फूलों की बिक्री दुनिया भर में पच्चीस प्रतिशत बढ़ जाती है। यह विचार भी है कि कहीं हम किसी से पीछे न छूट जाएं और दूसरे इसे मना लें। दूसरी तरफ यह देखने में आता है कि प्रेम का गाना-बजाना जितना बढ़ा है, जीवन से प्रेम, उसकी कोमलता गायब होती चली गई है। अब प्रेम जिद और अपनी ही मनवाने का नाम है। वहां दूसरे की फिक्र, दूसरे की भावनाओं की कद्र कम होती जा रही है।
एक तरफ एक प्रेमिका को हीरा देते वक्त विज्ञापन कहता है कि संबंधों की तरह हीरा है, सदा के लिए। मगर क्या यह वह दौर है, जहां कोई संबंध सदा के लिए होता था। आज तो फेसबुक पर कोई अभी संबंध में दिखता है और अगले ही दिन खुद को एकल यानी सिंगल कहता है। फिर अगले ही दिन ‘रिलेशनशिप’ में चला जाता है। संबंध भी इन दिनों ‘टू मिनट नूडल’ जैसे हो गए हैं। शादियों में जितनी धूमधाम, कई-कई दिन चलने वाले आयोजनों का जोर है, तो वहीं हर दिन बढ़ते तलाक बता रहे हैं कि शादियां तेजी से टूट रही हैं। ‘डेटिंग एप्स’ पर शादीशुदा और गैर-शादीशुदा लोगों की उपस्थिति बढ़ती जा रही है। किसी अनजान से संबंधों का चलन जोरों पर है।
‘डेटिंग’ साइटों पर जाने वाली एक लड़की ने कहा कि इससे वह बहुत सशक्त महसूस करती है। लड़के को चुनना और उसे कभी भी छोड़ना, अब उसकी पसंद है। अब तक यह पसंद लड़कों के हाथ में रही है। लड़कों का पल के पल में संबंध से किनारा करने की जिस आदत से लड़कियां परेशान रही हैं, अनेक फिल्में भी इस विषय पर बन चुकी हैं, अब वे उसी छोड़ने को अपनी ताकत मान रही हैं। पहले की तरह किसी संबंध के टूटने के बाद दुख मनाना, साथी को याद करना भी जैसे अतीत की बातें हो चली हैं।
अब तो संबंध टूटने के बाद यह कहने का रिवाज ज्यादा है कि ‘हम अच्छे दोस्त हैं’। यह हर ओर दिखाई दे रहा है। फिल्मों भी न तो अब ऐसे प्रेम गीत सुनाई देते हैं, जो अरसे तक याद रहें। न वैसा मधुर संगीत ही है, जिसे सुनते ही कदम ठहर जाते थे। इन दिनों तो जो गाने ‘सुपरहिट’ और ‘ब्लाक बस्टर’ कहे जाते हैं वे अगले कुछ दिनों में ही भुला दिए जाते हैं। फिल्में, धारावाहिक, तमाम अन्य कार्यक्रम, यहां तक कि साहित्य भी विमर्शों के बोझ से कराह रहे हैं। जहां हिंसा, प्रतिहिंसा और बदले की भावना का बोलबाला है।
अब साहित्य में ‘देवदास’ या ‘गुनाहों का देवता’ नहीं लिखे जाते। इन्हें ‘इमोशनल फूल्स’ के हिस्से की कृति कहा जाता है। ‘तेरे प्यार का आसरा चाहता हूं’, गाने वालों के बाल-बच्चे, नाती-पोती ‘इश्क कमीना’ की धुन पर थिरक रहे हैं। ‘न ये चांद होगा न तारे रहेंगे, मगर हम हमेशा तुम्हारे रहेंगे’ गीत न अब लिखे जाते हैं न वैसा मधुर संगीत ही होता है। अगर ऐसे गाने लिखे भी जाएं, मीठा संगीत भी हो तो उसे ‘ओल्ड स्कूल’ और दादा-दादी के जमाने का कह कर खारिज कर दिया जाता है। आखिर प्रेम के लिए जो भावनाएं चाहिए, एक-दूसरे की फिक्र चाहिए, वे क्यों लुप्त होती जा रही हैं।
जीवन में इनकी जगह न हो, ऐसा तो नहीं है। दुनिया में कौन ऐसा होगा, जिसे प्रेम की कोमलता नहीं चाहिए। पशु-पक्षी, जानवर तक इस प्रेम को पहचानते हैं। वे आपकी आंखों में इसे पढ़ लेते हैं। एक पुस्तक पढ़ी थी, जिसमें बताया गया था कि पेड़ प्रेम को किस तरह से पहचानते हैं और प्रेम के स्पर्श से कितने आनंदित होते हैं। अगर उन पर प्यार भरा हाथ फिराया जाए, तो वे तेजी से बढ़ते हैं। उन पर ढेर से फूल खिलते हैं। ज्यादा फल लगते हैं। यहां तक कि अपने प्रेम करने वाले की मृत्यु पर अकसर वे मर भी जाते हैं। जब मनुष्य से इतर पेड़-पौधे जीवन प्रेम के महत्त्व को इतना पहचानते हैं, तो मनुष्यों के जीवन से भावनात्मक प्रेम क्यों गायब होता जा रहा है।
प्रेम मात्र शारीरिक नहीं है। वह भावनात्मक भी है। भावनात्मक प्रेम हमेशा जिंदा रहता है। वहां बदले की भावना आ ही नहीं सकती। बदले की भावना तो अधिकार बाद में आती है। मैंने यह किया, उसने यह नहीं, मैंने इतना महंगा उपहार दिया और उसने दो सौ में ही टरका दिया, बस प्रेम खत्म। वैसे भी अगर एक पलड़ा अधिकार का है, तो दूसरा कर्तव्यों का भी होना चाहिए। मगर इन दिनों कर्तव्य कोई नहीं सिखाता। कर्तव्य से जो जिम्मेदारी की भावना आती है, उसका लोप होता जा रहा है। इसीलिए प्रेम में अधिकार की भावना बलवती होने के कारण संबंध बहुत जल्दी टूट रहे हैं।
हो तो यह रहा है कि वर्षों तक संबंध चला। खूब धूमधाम से कर्जा लेकर विवाह किया और हनीमून से लौटते ही तलाक की अर्जी लगा दी गई। या किसी ने ‘हैप्पी बर्थ डे’ नहीं बोला तो संबंध खत्म। एक तरफ प्रेम और विवाह का बाजार कहता है कि संबंध रोज-रोज नहीं बनते, विवाह एक ही बार होता है, इसलिए आयोजन ऐसे हों, जो हमेशा याद रहें।
इसके लिए जितना पैसा खर्च हो, कर्ज में डूबें, कोई बात नहीं, लेकिन दूसरी ओर संबंध इतने कमजोर हो गए हैं कि मामूली बातों पर टूट जाते हैं। धैर्य और समझौते की कोई गुंजाइश नहीं होती। बढ़ा अहंकार कभी पीछे नहीं लौटने देता। परिवार अदालतों की बढ़ती संख्या यही बता रही है। क्या कोई ऐसा उपाय हो सकता है कि प्रेम की कोमलता और कमनीयता बनी रहे, जिससे कि संबंधों में स्थायित्व आ सके।