जेपी के बाद अण्णा आंदोलन ने ही सत्ता की धड़कनें बढ़ाईं थीं। दो बरस में ही सत्ता के दरवाजे पर जेपी के आंदोलनकारी रेंगते और आपस में झगड़ते दिखाई दिए थे। इस बार दो बरस के भीतर ही अण्णा के सिपहसालार राजनीतिक सत्ता की दो धाराओ में बंट गए। तो क्या देश में वैकल्पिक राजनीति का सोच अब भी एक सपना है और सियासत की बिसात पर आंदोलन को आज नहीं तो कल प्यादा होना ही है। फिर रास्ता है क्या?
यह सवाल इसलिए अब जरूरी है और दिल्ली चुनाव तले आंदोलन को याद करना भी इसलिए जरूरी है कि भविष्य के रास्ते की मौत न हो सके। याद कीजिए जन लोकपाल को। भ्रष्ट्राचार के खिलाफ इस आवाज में इतना दम तो था ही कि तिरंगे के आसरे देश में यह अहसास जागे कि भ्रष्ट होती व्यवस्था को बदलना जरूरी है। तभी तो जंतर मंतर से लेकर रामलीला मैदान में, जहां आम लोगों का रेला तिरंगे की धुन पर नाचता-थिरकता तो सांसदों की धड़कनें बढ़ जातीं। सड़क पर भारत माता की जय और वंदेमातरम के नारे लगते तो संसद के भीतर अण्णा हजारे के अनशन को खत्म कराने के लिए सरकार समेत हर राजनीतिक दल नतमस्तक दिखाई देते। लेकिन जिस जन लोकपाल के नारे तले समूचा देश एकजुट हुआ, उसी का नारा लगाने वाले ही कैसे अलग हो गए ,यह केजरीवाल के राजनीति में कूदने और हजारे के वापस रालेगण सिद्धी लौटने से पहली बार उभरा। दूसरी बार, भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सुर में आवाज लगाने वाले केजरीवाल के खिलाफ सियासी मैदान में किरण बेदी के कूदने से उभरा है।
दोनों दौर ने उसी राजनीतिक सत्ता को महत्ता दे दी, जिसको आंदोलन के दौर में नकारा जा रहा था। पहला सवाल यही है कि क्या साख खोती राजनीति के खिलाफ आंदोलन करने वालों की साख राजनीतिक मैदान में ही साबित होती है। या फिर दूसरा सवाल कि क्या राजनीतिक सत्ता के आगे आंदोलन कोई वैकल्पिक राजनीति खड़ा कर नहीं सकता। और आखिर में आंदोलन को उसी राजनीति की चौखट पर दस्तक देनी ही पड़ती है जिसके खिलाफ वह खड़ी होती है।
जब केजरीवाल राजनीति में कूदे तब का सवाल और आज किरण बेदी राजनीति के मैदान में कूदीं, तब के सवाल में इतना ही फर्क आया है कि जन लोकपाल का सवाल हाशिए पर है और जन लोकपाल का सवाल उठाने वाले चेहरे आमने-सामने आ खडेÞ हुए हंै। अब दोनो ही लुटियंस की दिल्ली में रालेगण सिद्धी के सपनों को पूरा करने का सपना अपने-अपने तरीके से जगाएंगे।
ये ऐसे सवाल हैं जो मौजूदा राजनीति की साख पर सवाल उठाने के बाद घबराने लगते है? या फिर साख खो चुकी राजनीतिक सत्ता को ही अपनी साख से कुछ आॅक्सीजन दे देते हंै और जनता के मुद्दे चुनावी नारों में खत्म हो जाते है। याद कीजिए , 2011 में जन लोकपाल, 2013 में जन लोकपाल से लोकपाल। और 2015 आते-आते लोकपाल शब्द भी उसी दिल्ली के उसी सियासी गलियारे से गायब हो चुका है जिसे कभी जन लोकपाल शब्द से डर लगता था।
फरवरी 2014 में लोकपाल के लिए सत्ता को भी ताक पर रखने की हिम्मत हुआ करती थी। लोकपाल के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने की हिम्मत साल भर पहले केजरीवाल में थी। लेकिन साल भर बाद का यानी अभी का सच यह है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए केजरीवाल भी लोकपाल के सवाल से दूर हैं और आंदोलन के दौर में भ्रष्ट व्यवस्था को बदलने के सोच से दूर हैं। मौजूदा दौर में दिल्ली के सीएम की कुर्सी के लिए सारे सवाल बिजली, पानी, सड़क या कानून व्यवस्था से आगे जा नहीं रहे हैं। इतना ही नहीं सत्ता की दौड़ में कैसे घालमेल हुआ, यह भी उन चेहरों के आसरे परखें तो वैसी ही हैरानी होगी जैसे जेपी के दौर के संघर्ष करने वाले नेता आज कांग्रेस के साथ खडेÞ हो जाते हैं और जनता परिवार भाजपा के खिलाफ बनने लगता है। अब के दौर में देखें जो भ्रष्टाचार के खिलाफ, राजनीतिक दलों के तौर-तरीकों के खिलाफ सड़क पर संघर्ष कर रहे थे, उनमें दर्जनों चेहरे हंै जो भाजपा में शामिल हो गए या कल तक हो जाएंगे। मसलन, किरण बेदी , महेश गिरी, एमएस धीर, हरीश खन्ना, अशोक चौहान, अश्विनी उपाध्याय, सुभाष तलवार, राजेश गुप्ता, सलिल कुमार, इशरत अली, फरहाना अंजुम शाजिया इल्मी, विनोद कुमार बिन्नी आदि। आंदोलन करते-करते राजनीति के लिए तैयार राजनीतिक दल में भी भाजपा के नेता शामिल हो गए और किसी ने विरोध नहीं किया। रामनिवास गोयल, रघुवेंद्र शौकीन, वेद प्रकाश, करतार सिंह तंवर, नरेश बलयान, फतेह सिंह, उमेश वर्मा, ये वे नाम हंै जो केजरीवाल की पार्टी से चुनाव लड़ रहे हैं।
इन हालात ने भाजपा को भी ताकत दी और किरण बेदी को भी भाजपा के मंच पर ला खड़ा किया है क्योंकि दिल्ली चुनाव नैतिक बल के आसरे नहीं लड़ा जा रहा है। दिल्ली चुनाव व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर भी नहीं लड़ा जा रहा है। दिल्ली चुनाव भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई नारा भी नहीं दे पा रहा है। कह सकते हैं कि मौजूदा दिल्ली का चुनाव सिर्फ सीएम की कुर्सी की लड़ाई है। इसलिए किरण बेदी और केजरीवाल के चुनावी संघर्ष का यह मतलब कतई नहीं है।
आंदोलन के दौर को याद किया जाए। इस चुनावी संघर्ष का सीधा मतलब ईमानदार चेहरों के आसरे चुनाव को अपने हक में करने के आगे बात जाती नहीं है। और यहीं से बड़ा सवाल भाजपा का निकलता है कि क्या अभी तक दिल्ली चुनाव जहां मोदी बनाम केजरीवाल के तौर पर देखा जा रहा है, अब किरण बेदी के भाजपा में शामिल होने के बाद यही दिल्ली का चुनाव केजरीवाल बनाम किरण बेदी हो जाएगा। यानी मोदी नहीं बेदी के लिए भाजपा अब नारे लगाएगी और जन लोकपाल के जरिए ईमानदार व्यवस्था की जगह मुख्यमंत्री की कुर्सी की लड़ाई नई रंगत में सामने आएगी, क्योंकि भाजपा के जो नेता दिल्ली का सीएम बनने की कतार में हैं, उसमें हर्षवर्धन, जगदीश मुखी, सतीश उपाध्याय, विजय गोयल सरीखे दर्जन भर चेहरों पर किरण बेदी सबसे भारी क्यों लग रही हैं।
यानी पहला बड़ा संकेत कि किरण बेदी ने झटके में अहसास करा दिया कि भाजपा के भीतर दिल्ली के किसी भी प्रोफेशनल राजनेता से उनके प्रोफेशन का कद खासा बड़ा है , या फिर केजरीवाल का जवाब देने के लिए भाजपा जिन अंधेरी गलियों में घूम रही थी और हर बार उसकी बत्ती गुल हो रही थी, उस अंधेरे को अचानक बेदी ने नई रोशनी दे दी है। और भाजपा के लिए किरण केजरीवाल के खिलाफ रोशनी हैं तो फिर नई दिल्ली की सीट पर दोनों का आमना-सामना होगा ही, क्योंकि केजरीवाल भी 2013 में दिल्ली के मुख्यमंत्री तब बने, जब उन्होंने तब की सीएम शीला दीक्षित को हराया। ऐसे में केजरीवाल के खिलाफ मैदान में उतरने का जुआ तो किरण बेदी को खेलना ही होगा।
केजरीवाल को हराते ही बेदी का कद भाजपा के तमाम कद्दावर नेताओं से बड़ा हो जाएगा। और अगर वे हार जाती हंै तो फिर भाजपा अपने एजंडे पर बरकरार रहेगी। यही कहा जाएगा कि केजरीवाल से किरण बेदी चुनाव हारीं न कि भाजपा। किरण को साथ लाना भाजपा के लिए मास्टरस्ट्रोक इसीलिए है कि चित-पट दोनों हालात में मोदी की छवि पर कोई असर नहीं पड़ेगा। लगातार चुनाव जीतती भाजपा की छवि पर भी कोई असर नहीं पड़ेगा। सिर्फ इतना ही कहा जाएगा कि चाल ठीक नहीं चली। और झटके में मोदी सरकार की वह रफ्तार बरकरार भी रह जाएगी जिसके रुकने का भय लगातार
भाजपा को सता रहा है। लेकिन पहली बार किरण बेदी और केजरीवाल के आमने-सामने खड़े होने से उस आम आदमी को मुश्किल होगी ही जिसने अण्णा के आंदोलन के दौर में भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यवस्था परिवर्तन तक के सपने देखे थे।
पुण्य प्रसून वाजपेयी, (टिप्पणीकार आजतक से संबद्ध हैं।)