सत्येंद्र किशोर मिश्र

वैश्विक स्तर पर तेज बदलाव और विज्ञान और प्रौद्योगिकी में प्रगति से भारतीय समाज में नाटकीय परिवर्तन हुए हैं। निस्संदेह भारत ने वाणिज्य, प्रौद्योगिकी और विकास आदि क्षेत्रों में कई सीमाएं लांघी हैं, पर भारतीय संस्कृति तथा परंपरा से अलगाव और मूल्यों में गिरावट भी दिखी है।

पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली अनेक प्राचीन सभ्यताओं और आधुनिक महाद्वीपों की विभिन्न धाराओं को समाहित करते हुए आधुनिक यूरोप में विकसित ज्ञान की तार्किकता के साथ जुड़ी है। इसके केंद्र में बौद्धिक परिणाम, सत्यापन योग्यता, अमूर्तता के सामूहिक ज्ञान की अवधारणा है। दरअसल, यह भौतिकता, सांस्कृतिक रूप और यथार्थ विवरण के रूप में आइकेएस से भिन्न है।

वर्तमान शिक्षा प्रणाली सरकारी बाबू बनाने तक सीमित है, जिसका मकसद छात्र की वास्तविक क्षमता को निखारने के बजाय एक आत्मकेंद्रित, नौकरी चाहने वाले जीविकोपार्जन केंद्रित व्यक्ति का निर्माण करना है। पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली ने भारत की संस्कृति तथा ज्ञान परंपरा को नजरंदाज कर भारतीय आत्मविश्वास, स्वतंत्र सोच, रचनात्मकता और उद्यमशीलता की भावना ही नष्ट कर दी।

आइकेएस में दर्शन, व्यावहारिक शिक्षा, कला, कौशल, शिल्प कौशल, कृषि, स्वास्थ्य और विज्ञान शामिल हैं, जिनके अध्ययन, अनुकूलन और आधुनिक जीवन में एकीकरण से परिवर्तनकारी शुरुआत होगी। इसमें पारंपरिक चिकित्सा, ज्योतिष, योग, ध्यान सहित पीढ़ियों से चली आ रही प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की एक विस्तृत शृंंखला शामिल है, जिसकी भारतीय संस्कृति तथा इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

इसके प्रमुख स्तंभों में वैदिक साहित्य है, जो भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिकता का आधार है। वैदिक साहित्य दार्शनिक शिक्षा, नैतिक सिद्धांत और व्यावहारिक ज्ञान के साथ-साथ प्राचीन भारत की गहन समझ और ज्ञान में अंतर्दृष्टि प्रदान कर सहस्राब्दियों से भारतीय जीवन शैली को आकार देकर साहित्य, कला, संगीत, वास्तुकला और शासन सहित विभिन्न क्षेत्रों को प्रभावित करता रहा है।

आज योग और ध्यान की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नयन में भूमिका को वैश्विक मान्यता प्राप्त है। भारतीय षड्दर्शन आत्मचिंतन का अद्वितीय दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। न्यायदर्शन तर्क और ज्ञानमीमांसा पर केंद्रित है, जबकि वैशेषिक दर्शन परमाणुओं और उनके संयोजनों के विश्लेषण के माध्यम से प्रकृति की वास्तविकता का पता लगाता है। सांख्य, योग, मीमांसा और वेदांत दर्शन ने गहरी दार्शनिकता की नींव रखी।

आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त जैसे प्राचीन भारतीय गणितज्ञों ने अंकगणित, बीजगणित और ज्यामिति में महत्त्वपूर्ण खोज की। सौरमंडल के सूर्यकेंद्रित माडल पर आर्यभट्ट का ज्ञान अपने समय से सदियों आगे था। सुश्रुत संहिता चिकित्सा और सर्जरी का एक अद्वितीय ग्रंथ है। एनईपी के पाठ्यक्रमों में व्यावहारिक ज्ञान का एकीकरण है जो न केवल तकनीकी रूप से संपन्न होने, बल्कि रोजमर्रा की जिंदगी में नवीनतम प्रौद्योगिकी के नैतिक उपयोग पर बल देती है।

एनईपी का लक्ष्य आइकेएस की बुनियाद पर भारतीय शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन करना है। भारत विश्व में सांस्कृतिक विरासत, जीवन मूल्यों और समृद्ध साहित्य के कारण एक विशिष्ट स्थान रखता है। इसलिए भारतीय और स्थानीय संदर्भ और लोकाचार में दृढ़ता, सामाजिक और वैज्ञानिक आवश्यकताएं, सीखने के स्वदेशी और पारंपरिक तरीके भी जरूरी हैं। पाठ्यक्रम यह सुनिश्चित करेगा कि शिक्षा छात्रों के लिए भरोसेमंद, प्रासंगिक और प्रभावी हो, जिससे युवा पीढ़ी भारत की समृद्ध संस्कृति और विरासत पर गर्व कर सकेगी।

आज मानवता के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों- जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद, मानसिक अवसाद- का सामना करने के लिए समन्वित दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिससे मानव और प्रकृति में सामंजस्य स्थापित हो सके। आज भारत को राज्य, आर्थिक दर्शन, सामाजिक संरचना सहित भारतीय संविधान में राष्ट्र-राज्य और राज्यों के संघ की धारणा से लेकर, समानता एवं मौलिक अधिकार, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता आदि हेतु प्रासंगिक सिद्धांत निर्माण के लिए आइकेएस आधारित गहन अध्ययन की आवश्यकता है।

पर, अति उत्साह और आवेग में यह सोचना कि समस्त ज्ञान-विज्ञान आइकेएस के अंतर्गत ही हैं, पाश्चात्य ज्ञान प्रणाली सर्वथा निरर्थक तथा बेकार है, बौद्धिकता के स्तर पर घातक हो सकता है। निस्संदेह आइकेएस की एक गौरवशाली विरासत है, इसको समझने, खोजने तथा सामायिक तथा राष्ट्रीय संदर्भों में स्थापित करने की जरूरत है, पर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के युग में अन्य वैश्विक ज्ञान परंपराओं को बगैर सही ढंग से सत्यता तथा तार्किकता की कसौटी पर कसे, पूरी तरह से खारिज करना तथा आइकेएस को समग्रता में अपना लेना उचित नहीं होगा। असल चुनौती प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तार्किकता के संदर्भों में पुर्नव्याख्या करने, समझने तथा व्यवहार में लाने की है।