महाराष्ट्र में इतिहास खुद को दोहरा रहा है। एक साल पहले जिस तरह से एकनाथ शिंदे ने बगावत कर शिवसेना में दो फाड़ की थी, अब उसी अंदाज में अजित पवार ने भी एनसीपी के साथ बड़ा खेल कर दिया है। उनकी तरफ से खुद तो डिप्टी सीएम की शपथ ली ही गई है, इसके अलावा कई दूसरे कद्दावर नेताओं ने भी एनडीए में खुद को शामिल कर लिया है। बड़ी बात ये है कि शिंदे की तरह अब अजित पवार भी एनसीपी पर अपना दावा ठोक रहे हैं। कह रहे हैं कि असल एनसीपी वे हैं, चुनाव चिन्ह उनके पास ही रहने वाला है।
अजित का खेल और कानूनी नियम
अब दावे अपनी जगह हैं, लेकिन सवाल ये कि क्या असल में अजित पवार की डगर इतनी आसान रहने वाली है? क्या सही में अजित के पास इतना समर्थन है? क्या अजित एनसीपी को अपनी पार्टी बता सकते हैं? अब इन सभी सवालों का जवाब पता करने के लिए दल बदल कानून को सही तरह से समझना जरूरी है। दल बदल कानून के कुछ ऐसे पहलू हैं जो बताते हैं कि किस स्थिति में पार्टी छोड़कर भी सदस्यता रद्द नहीं होती है।
दल बदल कानून की पूरी ABCD
दल बदल कानून का नियम कहता है कि कोई भी नेता अयोग्यता से बच सकता है अगर जिस पार्टी को वो छोड़ रहा है, उसका दूसरे राजनीतिक दल के साथ विलय हो जाए। दूसरी शर्त ये रहती है कि कम से कम दो तिहाई सांसद या विधायक उस विलय से सहमत होने चाहिए। अब अजित पवार जो दावे कर रहे हैं, उसे इस कानून से जोड़कर देखते हैं।
अजित की NCP कैसे हो सकती है?
वर्तमान में एनसीपी के पास विधानसभा में कुल 53 विधायक हैं। अजित खेमे के नेता दावा कर रहे हैं कि उनके पास 40 विधायकों का समर्थन है, अजित तो एक कदम आगे बढ़कर कह रहे हैं कि सभी उनके साथ खड़े हैं। अब 53 का दो तिहाई होता है 36, यानी कि अजित को ये आंकड़ा तो किसी भी कीमत अपने साथ चाहिए। अभी के लिए दावों के मुताबिक उनके पास पर्याप्त नंबर है, ऐसे में दल-बदल कानून के कई नियमों से उन्हें सुरक्षा मिल सकती है।
अब सवाल ये उठता कि चुनाव आयोग ऐसी परिस्थिति में किसे सपोर्ट करता है। जिसने बगावत की, क्या उसे मान्यता दी जाती है, या फिर जिसके साथ धोखा हुआ होता है, उसके पक्ष में फैसला जाता है। अब यहां भी दल बदल कानून के सहारे ही चुनाव आयोग भी कोई फैसला देता है। इस समय अजित पवार ने एनसीपी में टूट तो कर दी है, लेकिन क्या ये दो तिहाई वाली है? दावों में जरूर ऐसा कहा जा रहा है, लेकिन शरद पवार ने अपने पत्ते अभी तक नहीं खोले हैं।
चुनाव आयोग ऐसे मामलों में क्या करता है?
अब अगर दो तिहाई वाली बगावत की जाती है, तो कह सकते हैं कि किसी पार्टी में वर्टिकल स्प्लिट हुआ है। उस स्थिति में विधायकों से लेकर कार्यकर्ताओं में बड़ी फूट पड़ती है और वो पाला बदल लेते हैं। ऐसे में नियम अनुसार चुनाव आयोग उसे ही मान्यता देता है, जिसके पास संख्या बल पूरा रहता है, यानी कि जो खेमा बड़ा होता है।
क्या अजित को मिल जाएगा NCP का चुनाव चिन्ह?
अब ये तो पार्टी पर दावे की बात हुई, लेकिन सिंबल किसे दिया जाता है? अजित पवार ने तो साफ कर दिया है कि पार्टी भी उनकी है और एनसीपी वाला सिंबल भी उनका रहने वाला है। अब यहां पर सिंबल्स ऑर्डर 1968 के पैरा 15 समझना जरूरी हो जाता है। सरल शब्दों में कहें तो चुनावी सिंबल ये देखकर किसी को आवंटित किया जाता है कि उसकी वर्तमान स्थिति क्या है, विधायकों और सांसदों की कितनी संख्या है। यानी कि यहां भी बहुमत साबित करना जरूरी रहता है।
शिंदे मामले में क्या फैसला आया था?
चुनाव आयोग ऐसे मामलों में किसी का चुनावी सिंबल फ्रीज भी कर सकती है, दोनों लड़ाई करने वाले दलों को अलग-अलग चिन्ह भी दे सकती है और कुछ स्थिति में संख्याबल को देखते हुए किसी एक दल को जीत भी दे सकती है। शिंदे मामले में तो चुनाव आयोग ने संख्या देखते हुए शिवसेना और उसका सिंबल उनके गुट को दे दिया था। अब एनसीपी मामले में क्या रुख रहता है, इस पर सभी की नजर रहेगी।