कछुओं को लेकर कहा जाता है कि उनकी चाल बेहद धीमी होती है, वे लंबे समय तक एक ही जगह पर टिके रहते हैं। लेकिन अब एक ऐसे कछुए की बात हो रही है जिसने पूरे 4500 किलोमीटर का सफर तय किया है। सफर शुरू ओडिशा से हुआ, श्रीलंका तक गया और फिर बाद में महाराष्ट्र के रतनागिरी में आकर खत्म हुआ।

कौन सा कछुआ है ये?

बताया गया है कि इस कछुए ने अपना सफर ओडिशा के गहरीमठा से शुरू किया था, फिर उसने श्रीलंका का रुख किया, जाफना तक गया और फिर त्रिवेंद्रपुरम से होते हुए रतनागिरी तक पहुंच गया। अब इस कछुए की पहचान भी इसलिए हो पाई है क्योंकि उसके फ्लिपर पर टैग लगा हुआ था, उस पर नंबर था- 03233। 18 मार्च 2021 को ओडिशा की Gahirmatha Marine Wildlife Sanctuary ने उसकी पहचान की थी। ये 12000 Olive Ridleys प्रजाति वाले कछुओं में से एक है। अब इस कछुए के फ्लिपर में जो टैग लगा था, उसी की मदद से शोधकर्ताओं को उसके प्रवास पैटर्न और भोजन की तलाश के क्षेत्रों को ट्रैक करने में मदद मिली।

वैज्ञानिक इस बारे में क्या कह रहे?

अब शोधकर्ताओं की माने तो Olive Ridleys प्रजाति वाले कछुए अच्छे नैविगेटर होते हैं, वे अपना रास्ता खोजना जानते हैं, लेकिन इतनी लंबी दूरी किसी ने तय की हो, यह पहली बार पकड़ में आया है। इस बारे में Wildlife Institute of India (WII) के साथ साम करने वाले वैज्ञानिक डॉक्टर सुरेश कुमार कहते हैं कि मैंने कभी नहीं सोचा था कि कोई कछुआ ईस्ट कोस्ट से यूं वेस्ट कोस्ट तक आ जाएगा। अब शायद ऐसा पहली बार ना हुआ हो, लेकिन यह बात जरूर पहली बार हुई है कि एक टैग लगे कछुए को पहले ईस्ट कोस्ट पर देखा गया और फिर बाद में वही कछुआ वेस्ट कोस्ट पर भी मिला।

इन कछुओं का पैटर्न क्या?

डॉक्टर कुमार तो यहां तक मानते हैं कि कछुए ने जरूर श्रीलंका वाला 4500 किलोमीटर लंबा रूट चुका होगा, लेकिन वे इस बात से भी इनकार नहीं कर रहे हैं कि कछुए ने Pamban कॉरिडोर से होते हुए कोई छोटा रूट खोज लिया हो। अब यहां पर डॉक्टर बासुदेव त्रिपाठी की बात समझना भी जरूरी हो जाता है क्योंकि इस कछुए को टैग देने का काम उन्होंने ही किया था। वे इस खास प्रजाति वाले कछुए के बारे में कहते हैं कि मादा कछुए अंडे देने के लिए ज्यादातर ओडिशा तट पर समुद्र तटों पर एकत्रित होती हैं। ये 6 महीने ओडिशा के तट पर रहती हैं, नेस्टिंग करती हैं, फिर वहां से निकल जाती हैं।

सैटेलाइट टैग क्या होता है?

अब एक्सपर्ट्स के सामने चुनौती यह है कि वे पता नहीं लगा पा रहे कि कछुए एक जगह से दूसरी जगह जाने में असल में कितना समय लगा होगा। ऐसी चुनौती भी इसलिए आ रही है क्योंकि फ्लिपर टैग का इस्तेमला हुआ है, सैटेलाइट टैगक का नहीं। अगर सैटेलाइट टैग का इस्तेमाल होता तो उस स्थिति में रूट को लेकर विस्तृत जानकारी मिलती, समय को लेकर भी जरूरी इनपुट मिल जाते।

 Nayonika Bose और Sujit Bisoyi की रिपोर्ट