10 मई 1857। 161 साल पहले आज ही के दिन उत्तर प्रदेश के मेरठ में कुछ हिन्दुस्तानी सिपाहियों ने गोरों के खिलाफ बगावत का बिगूल फूंक दिया था। ये वो तारीख है जब जंजीरों में जकड़े हिन्दुस्तान ने पहली बार आजादी की अंगड़ाई ली। यहां की धरती से ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने का सामूहिक संकल्प लिया था। इस क्रांति की चिंगारी फूटी उत्तर प्रदेश के मेरठ से। 10 मई 1857 को मेरठ छावनी की पैदल सैन्य टुकड़ी ने 3 बंगाल लाइट कैवेलरी के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। 10 मई 1857 को रविवार का दिन था। ब्रिटिश सैनिक और जनरल चर्च में प्रार्थना कर रहे थे। हिन्दुस्तानी सिपाहियों से मौके का फायदा उठा, उन्होंने सबसे पहले हथियारों पर कब्जा किया और जेल पर हमला कर दिया। इस जेल में कई हिन्दुस्तानी बंद थे जो अंग्रेजों की सत्ता को उखाड़ फेंकना चाहते थे। इसके बाद पूरे मेरठ में कोहराम मच गया। क्रांतिकारी भीड़ ने पूरे सदर बाजार और कैंट क्षेत्र में अंग्रेजों के ठिकाने पर हमला किया। उनकी संपत्ति लूट ली गई। एक दिन में मेरठ पर हिन्दुस्तानी सिपाहियों का कब्जा हो गया।
बता दें कि गदर की लड़ाई की नींव 10 मई 1857 से पहले ही पड़ चुकी थी। इसके बाद नायक थे। मंगल पांडे। पश्चिम बंगाल के बैरकपुर में मंगल पांडेय 34वीं बंगाल नेटिव इंफेंट्री में तैनात थे। साल 1857 के मार्च महीने की 29 तारीख थी। मंगल पाण्डे ने चर्बी वाले कारतूसों के विरोध में एक अंग्रेज अफसर को 29 मार्च, 1857 को बैरकपुर छावनी में गोली मारने की कोशिश की। इतिहासकारों के मुताबिक इसके बाद मंगल पांडे ने खुद को भी गोली मार ली। लेकिन उन्हें बचा लिया गया। अंग्रेजों ने मंगल पांडे पर मुकदमा चलाया और 8 अप्रैल 1857 को उन्हें फांसी दे दी। इस घटना के बाद अंग्रेजों की फौज में शामिल भारतीय सिपाहियों में बेहद गुस्सा था।
10 मई को 1857 को मेरठ में अंग्रेजों को कुचलने के बाद भारतीय सैनिक एक दिन में ही दिल्ली पहुंच गये। 11 मई सुबह 3 बजे बंगाल लाइट कैवेलरी दिल्ली पहुंच गई। दिल्ली में लाल किले के पास हिन्दुस्तानी सेना बहादुर शाह जफर से मिली। मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर अब अग्रेंजों के पक्के दुश्मन बन चुके थे। 11 मई का दिन चढ़ते ही पूरी दिल्ली में अंग्रेजों के खिलाफ कत्ले आम मच गया। लगभग 50 अंग्रेजों को बहादुर शाह के नौकरों ने लाल किला के बाहर मार डाला। गदर के सिपाहियों ने कश्मीरी गेट में छुपे अंग्रेजों पर तोप से गोले चलाये। अंग्रेज अब यहां से भी भागने को मजबूर थे। 12 मई को 81 साल के बहादुर शाह जफर को हिन्दुस्तान का शहंशाह घोषित कर दिया गया। लेकिन तब भारतीय क्रांतिकारी असंगठित थे। अंग्रेजों के पास तार जैसे संचार के आधुनिकत्तम साधन थे। जिससे वह अपनी सेना को जरूरत की जगह पर जल्द भेज पाते थे।
धीरे-धीरे युद्ध का पलड़ा अंग्रेजों की ओर झुकने लगा। 5 जून को दिल्ली पर कब्जे के लिए अंग्रेजों ने मेरठ से फिर से एक सैन्य टुकड़ी भेजी। हिंडन नदी के किनारे भारतीय सैनिकों और अंग्रेजों के बीच लड़ाई हुई। दो दिन तक भीषण युद्ध के बाद भारतीय सैनिकों को पीछे हटना पड़ा। हालांकि 1 जुलाई से 21 सितंबर तक दिल्ली पुरी तरह से हिन्दुस्तानियों के कब्जे में रही। 14 सिंतबर को दिल्ली पर कब्जा करने के लिए अंग्रेजों ने जोरदार लड़ाई शुरू कर दी। 7 दिनों तक घनघोर लड़ाई हुई। आखिरकार ब्रिटिश सैनिकों ने बारुद के दम पर कश्मीरी गेट को ध्वस्त कर दिया। अंग्रेजों को दिल्ली के हर गली-मुहल्ले में विरोध झेलना पड़ा पर आखिरकार 24 सितंबर को 1857 को दिल्ली पर एक बार फिर से उनका कब्जा हो गया। शहंशाह-ए-हिन्दुस्तान बहादुर शाह जफर ने दिल्ली स्थित हुमायूं के मकबरे पर शरण ली और अंग्रेजों के सामने सरेंडर कर दिया। ब्रिटिश ऑफिसर विलियम हड़सन ने पहले वादा किया कि वह मुगल राजघराने के सदस्यों को छोड़ देगा। हड़सन ने बहादुर शाह जफर के दो बेटों और एक पोते को गिरफ्तार किया और उन्हें खुद गोली मारी। इसके बाद जब हड़सन ने शहंशाह बहादुर शाह जफर से पूछा कि क्या तुमने अपने अपनी आंखों के आंसू पोछ लिये। 81 साल के बहादुर शाह सफर ने कहा-हड़सन, बादशाह रोते नहीं। बहादुर शाह जफर को रंगून निर्वासन पर भेज दिया गया।

