रोहित कौशिक

अहंकारी मन सच्चाई स्वीकार नहीं कर पाता और हमारी आंखों पर एक ऐसा चश्मा चढ़ा देता है जिससे वहीं दिखाई देता है जो हम देखना चाहते हैं। अहंकार झूठ की बुनियाद पर खड़ा होता है। इसलिए वह बार-बार झूठ की वकालत करता है और इस तरह हमारे चारों तरफ झूठ का साम्राज्य स्थापित कर देता है। इस झूठ के साम्राज्य में तर्क के लिए कोई जगह नहीं होती। अगर कोई दूसरा व्यक्ति हमारे अंदर पनपे अहंकार को चुनौती देता है तो हम दूसरे व्यत्क्ति को ही झूठा साबित कर देते हैं। इसलिए हम उस सच्चाई से साक्षात्कार नहीं कर पाते जो हमारे सामने खड़ी होती है, क्योंकि अहंकार के कारण हम उसे देख ही नहीं पाते हैं।

जब सच से हमारा साक्षात्कार नहीं होता है तो हम प्रगति के रास्ते से भटक जाते हैं। प्रगति के रास्ते पर भी वही चल सकता है, जिसकी आंखों पर परदा न हो। हो सकता है कि हमें यह महसूस हो कि हम प्रगति के रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं लेकिन यह अल्पकालिक प्रगति होती है। अहंकार के कारण हम दीर्घकालिक प्रगति नहीं कर सकते। सहज और सरल रहकर ही हम दीर्घकालिक प्रगति कर सकते हैं। अहंकार सहजता को पनपने का मौका नहीं देता और अन्तत: हमारे व्यवहार से सहजता गायब हो जाती है। ऐसे में हमारी संवेदना भी सूखने लगती है। ऐसे व्यक्ति के लिए न तो रिश्ते-नाते कुछ मायने रखते हैं और न ही समाज। इसलिए ऐसा व्यक्ति न तो परिवार की शर्म करता है और न ही समाज को अपेक्षित सम्मान देता है। इसलिए अहंकार हमारे पारिवारिक और सामाजिक जीवन में भी जहर घोल देता है।

दरअसल सारे लड़ाई-झगड़े भी अहंकार के कारण ही होते हैं। जब हमारे अंदर अहंकार पनपने लगता है तो हम छोटी-छोटी बातों को भी नाक की बात बना लेते हैं। हम हर बात को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़कर देखने लगते हैं। यहीं से लड़ाई-झगड़े की शुरुआत होती है। हमारे देश के अंदर ही नहीं बल्कि विभिन्न देशों के बीच अधिकतर युद्ध अहंकार के कारण ही लड़े जाते हैं। विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्ष अपने अहंकार के कारण जनता को युद्ध की विभीषिका झेलने के लिए मजबूर कर देते हैं। देश तबाह हो जाते हैं लेकिन राष्ट्राध्यक्षों का अहंकार नष्ट नहीं होता है।

इस तरह देश के कुछ नेताओं और राष्ट्राध्यक्षों का अहंकार पूरी जनता को बर्बाद कर देता है। दु:खद यह है कि अहंकारी व्यक्तिअपने सामने सब कुछ बर्बाद होते हुए देखकर भी संतुष्ट नहीं होता है। उसका अहंकार और बढ़ता रहता है। फलस्वरूप वह स्वयं भी बरबादी की आग में जलकर राख हो जाता है। अहंकार नफरत की आग को लगातार बढ़ाता रहता है। यह आग अहंकारी व्यक्ति को भी अपनी चपेट में ले लेती है। इस तरह न अहंकार बचता है और न ही अहंकारी व्यक्ति। हम यह नहीं समझ पाते हैं कि अहंकार ही हमारे विनाश का कारण है।

कई बार हम जानबूझकर अपनी आंखों पर पट्टी बांध लेते हैं। जब हम जानबूझकर अंधे हो जाते हैं तो हमें सच दिखाई नहीं देता और हम गलत राह पकड़ लेते हैं। अहंकार की यह गलत राह हमें एक ऐसी खाई में धकेल देती है जहां सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा मौजूद रहता है। अहंकार हमारे अंदर एक नकारात्मक बेचैनी पैदा करता है। इस तरह हम स्वयं तो परेशान रहते ही हैं, दूसरों को भी परेशान रखते हैं।

इसलिए अपनी और दूसरों की शांति के लिए भी अहंकार त्यागना जरूरी है। क्या अहंकार त्यागना इतना मुश्किल है कि हम ताउम्र उसके चक्रव्यूह में फंसे रहते हैं? क्या अहंकार त्यागने के लिए बहुत बड़ी तपस्या की जरूरत होती है? मुझे लगता है कि अहंकार त्यागने के लिए किसी बड़ी साधना की जरूरत नहीं होती है। अहंकार त्यागने के लिए सच्चे और निश्छल हृदय की जरूरत होती है। स्वार्थ और कपट रहित हृदय में अहंकार पनप ही नहीं सकता। हम अक्सर समाज में लोगों को यह बात करते हुए सुनते हैं कि अहंकार तो रावण का भी नहीं रहा। इसका अर्थ यह है कि समाज को इस बात का बोध है कि शक्तिशाली व्यक्ति भी अहंकार के आधार पर अपना अस्तित्व नहीं बचा सकता है। तो फिर अहंकार क्यों किया जाए? अहंकार को त्यागकर ही हम अपना और समाज का भला कर सकते हैं।