पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) को भारतीय राजनीति का ‘अजातशत्रु’ भी कहा जाता है। अपनी शानदार भाषण शैली और मिलनसार स्वभाव के लिए मशहूर अटल बिहारी वाजपेयी साल 1954 में पहली बार सियासी अखाड़े में उतरे। यह मौका भी उन्हें संयोगवश मिला। दरअसल, जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित ने संयुक्त राष्ट्र में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए अपनी सांसदी छोड़ने का फैसला किया और लखनऊ सीट से इस्तीफा दे दिया। उप-चुनाव की घोषणा हुई और जनसंघ ने भी इस सीट पर अपना उम्मीदवार उतारने का ऐलान किया।
जनसंघ ने 29 साल के ‘लड़के’ को टिकट देकर चौंका दिया था: जब जनसंघ ने अपना प्रत्याशी घोषित किया तो तमाम सियासी पंडित दंग रह गए। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने लखनऊ के अखाड़े में एक 29 वर्षीय ‘लड़के’ को उतार सबको चौंका दिया था। वो लड़के कोई और नहीं बल्कि अटल बिहारी वाजपेयी थे। सियासी गलियारों में चुनाव से पहले ही नतीजों की भविष्यवाणी हो गई। और जब नतीजे आए तो भविष्यवाणी सच साबित हुए। इस चुनाव में जनसंघ कुछ खास नहीं कर पाई। अटल बिहारी वाजपेयी को हार का सामना करना पड़ा। वो तीसरे नंबर पर रहे।
पहले ही चुनाव में हार से वाजपेयी के दिल को गहरी ठेस पहुंची। उन्होंने जोर-शोर से प्रचार किया था…खूब मेहनत की थी और धारदार भाषण दिये थे, जिसकी विपक्षी दलों ने भी तारीफ की थी। खैर, बात आई-गई हो गई। साल 1957 में आम चुनाव की घोषणा हुई। इस बार वाजपेयी फिर चुनावी रण में उतरे। एक नहीं…तीन-तीन सीट से। लखनऊ, बलरामपुर और मथुरा। लखनऊ और मथुरा में तो उनकी हार हुई, लेकिन बलरामपुर सीट से चुनाव जीतने में कामयाब रहे।
कभी नहीं भूले पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एहसान: चर्चित लेखक विनय सीतापति अपनी किताब ‘जुगलबंदी: भाजपा मोदी युग से पहले’ में लिखते हैं कि साल 1954 के चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी की भले हार हुई हो, लेकिन वे ताउम्र पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एहसान को नहीं भूले।
हमेशा टेबल पर रखते थे पंडितजी की तस्वीर: सीतापति वरिष्ठ पत्रकार और बीजेपी नेता स्वपन दासगुप्ता के हवाले से लिखते हैं कि, ‘अटलजी के टेबल पर हमेशा दीनदयालजी की तस्वीर रखी रहती थी…यह देख मुझे हैरानी होती थी, क्योंकि वे (अटल बिहारी वाजपेयी) सामान्यत: इस तरह का काम नहीं करते थे।’
नेहरू की तस्वीर हटाने पर बिफर गए थे: अटल बिहारी वाजपेयी सिद्धांतों की राजनीति में विश्वास रखते और उनकी हर दल में स्वीकार्यता थी। पंडित नेहरू भी उनके कायल थे और वाजपेयी भी उन्हें उतना ही सम्मान देते थे। साल 1977 में जब वाजपेयी विदेश मंत्री बने तो उन्होंने देखा कि साउथ ब्लॉक के उनके दफ्तर से पंडित जवाहरलाल नेहरू की तस्वीर हटा दी गई है। इस पर उन्होंने तीखी नाराजगी जताई और बाद में पंडित नेहरू की तस्वीर वापस वहां लगा दी गई।