गर्भावस्था के शुरुआती दिनों में डॉक्टर आपको कई अलग-अलग तरह की जांच करवाने की सलाह देते हैं, जिससे गर्भ में पल रहे शिशु के स्वास्थ्य की पूरी जानकारी मिल सके। एनआईपीटी यानी नॉन-इनवेसिव प्रीनेटल टेस्ट, जो प्रसव से पहले होने वाली जांच है। इसके जरिए शिशु में जन्म-दोष और अनुवांशिक विकार होने का पता लगाया जाता है। बता दें, गर्भधारण करने के कुछ ही हफ्तों में बच्चे का डीएनए मां के ब्लडस्ट्री में मिल जाता है। जिसके बाद मां के खून के जरिए बच्चे में होने वाली अनुवांशिक बीमारी या फिर खतरे का आसानी से पता लगाया जा सकता है।
इसके अलावा गर्भवती महिलाओं को पेशाब की जांच और अल्ट्रासाउंड कराने की भी डॉक्टर सलाह देते हैं।
क्या होता है NIPT: नॉन-इनवेसिव प्रीनेटल टेस्ट में गर्भ में पल रहे शिशु में अनुवांशिक बीमारी का पता लगाने के लिए उसकी गर्भनाल के डीएनए की जांच की जाती है। इस टेस्ट को शुरुआती दो से तीन महीने के अंदर करवाया जाता है। यह टेस्ट शिशु में डाउन सिंड्रोम, एडवर्ड सिंड्रोम और पतऊ सिंड्रोम का पता लगाने में मदद करता है। हालांकि, यह सिर्फ एक स्क्रीनिंग होती है, जिसमें यह पता लगाया जाता है कि बच्चे के अंदर इस तरह का कोई विकार तो नहीं है या फिर इस तरह का विकार होने की कोई संभावना तो नहीं है।
किन महिलाओं को करवाना चाहिए एनआईपीटी: मां की उम्र बढ़ने के साथ ही शिशु में डाउन सिंड्रोम होने का खतरा भी बढ़ जाता है। ऐसे में डॉक्टर्स यह टेस्ट करवाने की सलाह देते हैं। बता दें, शुरुआत में यह जांच सिर्फ उन्हीं महिलाओं के लिए थी जिनकी उम्र 35 वर्ष या उससे अधिक हो, या जिन्होंने क्रोमोसोमल असामान्यता वाले शिशु को जन्म दिया है। या फिर ऐसी महिलाएं जिनके परिवार में अनुवांशिक विकारों का इतिहास रहा है।
NIPT जांच के नतीजे: इस टेस्ट के नतीजे आमतौर पर 2 से 3 हफ्तों के अंदर ही आ जाते हैं। अगर रिपोर्ट निगेटिव आई हो, तो इसका मतलब यह होता है कि बच्चे को यह सिंड्रोम होने का खतरा काफी कम है। जिसके बाद माता-पिता की बच्चे के स्वास्थ्य से जुड़ी सभी चिंताएं दूर हो जाती हैं। बता दें, इस टेस्ट की सटीकता 97% से 99% होती है। जिससे यह पता लगाया जा सकता है कि बच्चे में आमतौर पर पाए जाने वाले 3 आनुवंशिक विकारों में से कोई एक होने का खतरा है या नहीं।