बचपन में हम सभी गुड्डे-गुड़ियों का खेल खेलते हैं। ईश्वर ने भी कभी खेला था, एक बार। उस समय धरती बंजर थी। आसमान में छाया था अंधकार। ईश्वर ने सूरज और चांद बनाया। धरती पर फल और फूल वाले पौधे उगाए। जाने कहां से आए भौंरे मंडराने लगे। तितलियां नाचने लगीं। झिंगुर गाने लगे। पक्षियों के कलरव और कोयल की कूक से चहक उठा जीवन। नदियों-झीलों और समंदर ने नए संसार के लिए स्थिरता, प्रवाह और गंभीरता की पूर्व पीठिका तैयार कर दी। …लेकिन सृष्टि अब भी अधूरी थी। तब ईश्वर ने धरा से एक मुट्ठी धूल उठाई और फूंक दिया हवा में। सामने पुरुष था- सृष्टि का पहला मानव। मगर सूरज और चांद फिर भी गुमसुम रहे। तारों ने भी टिमटिमाने से इनकार कर दिया। नदियां शांत रहीं। समंदर में नहीं उठी कोई लहर। प्रकृति भी मानो मुंह फेरे बैठे रही। तब ईश्वर ने पुरुष के दो बूंद आंसू लेकर नारी की रचना की।

यह था धरती पर पहला युगल। पुरुष और नारी। दोनों ने एक-दूसरे को देखा। संवाद के लिए कोई शब्द नहीं। तब आंखों से दिल की जुबां को पहली बार मनुष्य ने पढ़ा होगा। यह नारी और पुरुष के बीच पहली मैत्री थी। एक-दूसरे के साहचर्य और सहयोग की पहली अटूट संधि। तब मैं और तुम की जगह ‘हम’ ही रहा होगा, उन दोनों के बीच। संसार को जीवंत बनाने के लिए के लिए इन दोनों की रचना की गई थी। अंधकार छंटने लगा था। चांद निकल आया था। उसकी दूधिया रोशनी में वह सफेद परी लग रही थी और पुरुष देवदूत।

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इस बीची दोनों एक-दूसरे को मुग्ध होकर देखते रहे। आंखों से ही होता रहा संवाद। पुरुष पहली बार नारी की गोद में सिर रख कर सोया। रूह से मुलाकातों का सिलसिला चल निकला। वे एकाकार होने लगे। एक रात निर्लज्ज चांद मुस्कुराता हुआ गुम हो गया। …और फिर एक दिन सूरज उन्हें जगाने आ गया- उठो-उठो …जीवन की शुरुआत करो। एक-दूसरे में खोना नहीं, साथ आगे बढ़ना ही जीवन है। इसके साथ ही चारों ओर लालिमा फैल गई सूरज की। वह लाल परी लग रही थी। उसने लज्जा के मारे पलकें झुका लीं। फिर शुरू हुई स्त्री-पुरुष की पहली जद्दोजहद। उन्होंने बनाया अपना पहला घर।

उस वक्त प्रकति ही नारी की पहली सहेली थी। उससे जीना वो सीख गई थी। एक दिन जंगल से फल लेकर लौटी तो बेसुध होकर गिर पड़ी। पुरुष ने उसे गोद में उठा लिया। नारी ने अपनी पलकें मूंद ली थीं। वह अपने भीतर कुछ देख रही थी-तन्मयता से। उस शाम हमेशा की तरह सूरज दूर पहाड़ों के पीछे गुम हो गया। धुंधलका छाने लगा था। पुरुष उसकी पान-पत्र सी हथेलियों को सहलाता रहा, देर तक। उसके ललाट को अपने होठों का मृदुल स्पर्श दिया। मगर यह क्या? वह उससे दूर धरा पर जा लेटी। पुरुष चकित था कि आज इसे क्या हो गया? अंधकार और गहराया तो वह रोने लगी। कहीं-कुछ चुभ रहा था। असह्य वेदना से उसका रक्तिम आभायुक्त सौंदर्य पीला पड़ रहा था।

वह रो रही थी और धरती का पहला मानव असहाय था। कोई मदद न कर पाने की ग्लानि उसे बेचैन किए जा रही थी। आखिरकार उसने अपने नियंता को याद किया। उन्हीं से मदद की गुहार लगाई। कुछ देर बाद ही नारी की रुलाई थम गई। वह हांफ रही थी-लगातार। उसने पुकारा- ‘ओ मेरे मित्र, मेरे सखा। यह देखो…!’ प्रार्थना कर रहे पुरुष ने आंखें खोलीं। पास जाकर देखा तो क्षण भर के लिए चकित रह गया। उसने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया। तभी पहाड़ियों से सूरज फिर मुस्कुराता हुआ निकला। लालिमायुक्त उजास में नारी का चेहरा कमल की तरह खिल उठा था। पुरुष ने पाया कि उसकी सहचर ने उसी के छोटे से कोमल प्रतिरूप को जतन से छुपा रखा है।

तब धरती के पहले पुरुष ने ईश्वर से पहला सवाल किया- ‘ब्रह्मांड के रचयिता यह क्या है? यह क्या है, जिसकी सृष्टि आपने नहीं की।’ इस पर ईश्वर का जवाब था- ‘यह रचना तुम्हारी है और अब यह सृष्टि भी तुम्हारी। इस संसार में जो भी रूह में उतरेगा, वही मनुष्यता की सृष्टि करेगा। वही मानवीयता का संचार करेगा …और वही परिवार-समाज और विश्व का भी नवनिर्माण करेगा। ईश्वर कह रहे थे धरती के प्रथम पुरुष से- मेरा काम खत्म हुआ। अब तुम होगे इस धरती के नियंता। प्रकृति के रखवाले। यह नारी उसी का हिस्सा है और तुम उसके सहचर। तुम्हारे आंसुओं से इसे रचा है मैंने। इसलिए वह न तुमसे अलग है और न तुम उससे अलग हो। तुम दोनों का एक-दूसरे के बिना कोई वजूद नहीं।’