भारत में साड़ियों का फैशन बहुत पुराना है। हर इलाके में साड़ियां तैयार करने की विशिष्ट शैली है। साड़ी पहनने के तरीके भिन्न हैं। साड़ी की बुनावट और उसमें इस्तेमाल होने वाले धागे, डिजाइन आदि के चलते हर इलाके की साड़ी की पहचान खास हो जाती है। हर बुनकर साड़ी बुनने के अपने तरीके, शैली को सहेज कर रखना चाहता है, क्योंकि वही उसकी पहचान है। कोटा साड़ी भी इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। कोटा शैली की साड़ियों और उनमें बदलते फैशन के मुताबिक हो रहे बदलावों के बारे में बता रही हैं सुमन बाजपेयी।
राजस्थान जहां एक ओर अपनी रंग-बिरंगी बांधनी कला के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है, वहीं यहां की बारीक बुनावट और नफासत युक्त कोटा साड़ियां अपनी विशिष्ट कलात्मकता के लिए पसंद की जाती हैं। राजस्थान के महाराज भीम सिंह ने अपने शासनकाल (1707-1720) में दक्कन के मुसलमान बुनकरों को लाकर कोटा के आसपास गांवों में बसाया था। उस समय राजे-रजवाड़ों के बीच कोटा साड़ियों के इन मुसलिम बुनकरों की कला को बहुत प्रोत्साहन मिला और कुलीन हिंदू परिवारों की महिलाओं के बीच में ये साड़ियां बहुत लोकप्रिय हुर्इं।
राजस्थान के कोटा जिले से पैंतीस किलोमीटर दूर कैथून नाम का एक छोटा-सा कस्बा है, जहां कोटा साड़ियां पिछली दो सदी से तैयार की जा रही हैं। आरंभ में खादी के कपड़े बुने जाते थे, फिर सूत के साथ रेशम का भी समावेश हो गया। इन साड़ियों में रेशमी धागों का प्रयोग किए जाने की वजह से इनका वजन बहुत हलका होता है। धीरे-धीरे समय की मांग के अनुसार जरी के बॉर्डर और बूटियों का काम इन पर किया जाने लगा। हथकरधा पर ताना-बाना से निर्मित की जाने वाली इन साड़ियों को तैयार करने में बुनकर विशेष रूप से सिल्वर गोल्डन जरी, रेशम, सूत, कॉटन के धागों का मिश्रित रूप से उपयोग करते हैं। ये उच्च गुणवत्ता के धागे मुख्यत: बंगलुरू (कर्नाटक), सूरत (गुजरात), कोयंबटूर (तमिलनाडु) से मंगवाए जाते हैं।
आए हैं बदलाव
बुनाई के तरीकों में भी निरंतर बदलाव आते रहे हैं। पुरानी शैली की करघों की जगह अब आधुनिक तकनीक वाले करघे आ गए, जिन्हें चलाने के लिए हाथों के साथ-साथ पैरों का भी इस्तेमाल किया जाता था। उसके बाद बिजली से चलने वाले पावर लूम आए, जिससे इस उद्योग का स्वरूप ही बदल गया। पहले जो साड़ियां बुनी जाती थीं उन्हें सूती मसूरिया कहा जाता था, फिर रेशम के प्रयोग के बाद उन्हें मसूरिया कोटा कहा जाने लगा। माना जाता है कि लगभग साठ-सत्तर वर्ष पहले मैसूर से कोई व्यक्ति कैथून आया था, इसीलिए मसूरिया शब्द साड़ियों के साथ जुड़ गया था।
असली कोटा साड़ियां, जिन्हें डोरिया कोटा कहा जाता है, ये बहुत ही खास होती हैं। कोटा की इन साड़ियों को कोटा डोरिया नाम से पुकारे जाने का भी एक विशेष कारण है क्योंकि एक तो ये कोटा में बनती हैं तथा डोरिया का अर्थ होता है धागा अर्थात कोटा में धागे से निर्मित की जाने वाली साड़ियां- कोटा-डोरिया। इनमें बहुत ही बेहतरीन सूत का इस्तेमाल किया जाता है और बुनाई में असली सोने और चांदी का प्रयोग किया जाता है।
अद्भुत है कारीगरी
आमतौर पर कोटा साड़ी को दो तरीकों से बनाया जाता है। एक तो यह है कि सादा साड़ियां बुनने के बाद बुनकर उन्हें छपाई के लिए रंगरेज या छीपे के पास भेज देते हैं, जो इन साड़ियों पर तरह-तरह के प्रिंट छापते हैं। दूसरे तरीके में बुनाई के साथ-साथ ही बुनकर मुख्य रंग के अलावा किसी और रंग के रेशमी धागे और जरी से आकर्षक बेल-बूटे या ज्यामितिक आकृतियां उकेरते हैं।
हथकरघे पर बुनी जाने वाली कोटा साड़ियों के बुने जाने का तरीका बहुत ही दिलचस्प है। इस करघे में कंघीनुमा फ्रेम बना होता है और उसमें छत्तीस सौ दांत होते हैं। प्रत्येक दांत पर एक-एक धागे को बहुत कुशलता से चढ़ाया जाता है। करघे के जिस हिस्से में धागा चढ़ाया जाता है, उसे खत कहा जाता है। एक कोटा साड़ी में ढाई हजार कपास के और अठारह सौ रेशम के धागे होते हैं। करघे पर सीधे खड़े धागों को ताना कहते हैं, और इन्हीं से साड़ियों की लंबाई तय होती है। बुनकर एक करघे पर कम से कम पांच साड़ियों का आधार तैयार करते हैं, जिन्हें बुनने के बाद काट कर अलग कर दिया जाता है।
करघे पर क्षैतिज दिशा में लगाए गए धागों को बाना कहा जाता है और इन्हीं धागों से चौड़ाई की दिशा में लकड़ी की खपच्चियों से बुनाई की जाती है। इन घागों को करघे पर इस तरह चढ़ाया जाता है कि ताने में एक धागा ऊपर और एक धागा नीचे के क्रम में लगा होता है। धागों की इन्हीं परतों के बीच बाने से बुनाई की जाती है। इससे चेकनुमा बुनावट उभर कर सामने आती है, जो कोटा साड़ी की विशिष्ट पहचान है। जरी का बॉर्डर लगाना होता है, तो दोनों किनारों पर बॉर्डर की लंबाई-चौड़ाई के अनुसार जरी के धागे चढ़ा दिए जाते हैं।
सोने या चांदी की जरी तैयार करने के लिए सबसे पहले रेशम के धागों पर पिघली हुई चांदी की परत चढ़ाई जाती है। परत के सूखने पर उसके ऊपर असली सोने की परत चढ़ाई जाती है। बुनाई से पहले धागों पर उबले हुए मैदे के घोल की पतली परत को चढ़ाया जाता है और धागे को सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है। इस तरह धागा बारीक हो जाता है और साड़ियां ऐसी कड़क जैसे उन पर कलफ चढ़ाया गया हो।
दिया है नया आयाम
फैशन डिजानर विधि सिंहानिया एकमात्र ऐसी डिजाइनर हैं, जो सिर्फ कोटा फैब्रिक पर काम करती हैं और निरंतर इस पारंपरिक वस्त्र कला को नए आयाम दे रही हैं। उन्होंने परंपरागत कोटा साड़ी की लंबाई को पांच मीटर, साढ़े पांच मीटर किया और साड़ी के साथ ही उसी फैब्रिक से ब्लाउज भी डिजाइन करना शुरू किया। उन्होंने इन साड़ियों को नए रंग भी दिए जैसे काला, पीच, आइवरी, मोव आदि। जबकि आमतौर पर लाल, पीले, गुलाबी जैसे चटख रंगों का ही इस्तेमाल इन साड़ियों के लिए किया जाता था।
उन्होंने भारत की सुंदर कशीदकारी की शैलियों का प्रयोग भी इन साड़ियों में किया। उनकी डिजाइन की हुई साड़ियां बारीक कारीगिरी, उत्कृष्ट कढ़ाई, हाथ से बनी बूटियों, मोटिफ और जरी के काम के लिए प्रसिद्ध हैं। बुनकरों को उचित सम्मान और पहचान मिले, इसके लिए विधि जी अपनी साड़ियों के नए डिजाइनों का नाम अपने बुनकरों के नाम पर रखती हैं। वह लगभग एक हजार बुनकरों की संरक्षक हैं और इस तरह न सिर्फ वे इस वस्त्रकला को लुप्त होने से बचाने की कोशिश कर रही हैं, बल्कि एक जादू भी इन साड़ियों में बुन रही हैं।
