एक समय था, जब लोग थोड़े में ही संतुष्ट रहते थे। न ज्यादा उम्मीदें, न कुछ खोने की परवाह और न निराशा का भाव। अगर कभी किसी का मन निराश हो भी जाए, तो उसे खुशी और उत्साह में बदलने के लिए कई बहाने मौजूद रहते थे।
वहीं, आज के समय तेजी से बदलते वक्त के साथ आशा या उम्मीदों के अनियंत्रित विस्तार ने इंसान को बोझिल बना दिया है, जिससे निराशा का अंधेरे भी गहराने लगा है। ऐसे में आत्मनियंत्रण से ही इस अंधियारे से बाहर निकलने का रास्ता प्रशस्त हो सकता है।
निश्चित दायरा
- उम्मीदें पालना बुरी बात नहीं है, लेकिन इसका एक निश्चित दायरा होना जरूरी है। आज के दौर में उम्मीदों का बोझ ढोने का सिलसिला बचपन से ही शुरू हो जाता है। जैसे ही बच्चे का दाखिला स्कूल में होता है, उसे अंकों की दौड़ में शामिल कर दिया जाता है।
- उच्च शिक्षा तक पहुंचते-पहुंचते अभिभावकों की उम्मीदों का स्तर भी ऊंचा हो जाता है। बच्चे को शिक्षा के किस क्षेत्र में अपना करियर बनाना है, अमूमन यह अभिभावक ही तय करते हैं। इस क्रम में माता-पिता अपने बच्चों की रुचि का ख्याल कम ही रखते हैं। इसी के साथ अभिभावक उन पर अपनी उम्मीदों का बोझ भी लाद देते हैं।
- अगर कोई बच्चा, किशोर या युवा इन उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाता है तो निराशा दोनों ओर होती है। बच्चे इसलिए निराश हो जाते हैं कि वे अपनी क्षमता का अपेक्षाजनक प्रदर्शन नहीं कर पाए और माता-पिता यह सोचकर निराश हो जाते हैं कि उनकी उम्मीदें अधूरी ही रह जाएंगी।
तुलना से परहेज
अभिभावकों को खुद की और अपने बच्चों की तुलना दूसरों से करने से परहेज करना चाहिए। भविष्य को लेकर उम्मीदों का पहाड़ खड़ा करने के बजाय वर्तमान का बेहतर सदुपयोग करने की कोशिश सफलता की संभावना को बढ़ा देती है।
बच्चे हों या युवा, जब वे उम्मीदों के जाल में जकड़ जाते हैं, तो इसका असर उनकी कार्यक्षमता पर भी पड़ता है। कई बार दबाव में वे बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाते, जिससे मन में निराशा पैदा होने लगती है। इस कारण उनके प्रयासों में निरंतरता और उत्साह लगातार कम होते जाते हैं। कई दफा दूसरे से तुलना करने पर व्यक्ति के भीतर कुंठा और हीन भावना पैदा हो जाती है, जो आत्मबल को कमजोर कर देती है।
उत्साह का सूत्र
माता-पिता को बच्चों पर उम्मीदों का बोझ लादने के बजाय लक्ष्य तय करने में उनकी मदद करनी चाहिए। कोई भी लक्ष्य तभी हासिल किया जा सकता है, जब पूरी लगन के साथ उसे साधने का प्रयास किया जाए और लगन भी तभी होती है, जब उस कार्य में साधक की रुचि हो। जब कोई निराश महसूस करता है, तो वह किसी बुरी स्थिति की कल्पना करने लगता है और उसकी गंभीरता को भी जरूरत से ज्यादा आंकने लगता है।
देखा जाए तो हर कोई अपने जीवन में किसी न किसी तरह के मुश्किल दौर और चुनौतियों का सामना करता है, लेकिन इनसे पार पाना ही सफलता का मूल मंत्र है। परिस्थितियां व्यक्ति के नियंत्रण से बाहर हों, तो चिंता में अपनी ऊर्जा व्यर्थ करने के बजाय सिर्फ अपने कार्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इससे आत्मविश्वास बढ़ने लगता है और मन में उत्साह का सृजन होता है, जो कार्यक्षमता को बढ़ता है।
